विस्मृत यात्री | Vismrit Yatri

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Vismrit Yatri by राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एक कोशमें चार होती है। महाचीनके लोग दूरीको लीमें कहने पर उसे जितना आसानीसे समझ सकते हैं, उतना क्रोश या योज़न कहनेमें नहीं । हम अपने यहाँ गोरे रंग, सुनहले बालों और नीली आँखोंको सौन्दर्यकी प्रतीक मानते हैं, किन्तु महाच्ीनके लोग इसे बन्द्रो जैसी शक्ल बतलाते हैं। ऊं लम्बी नाके हमें मली मालूम होती हैं, लेकिन महाचीनवाले उसे भौंड़ी बतलाते हैं। मोजन भी अपने-अपने अलग होते हैं।मगधकी गत्वशाली/(वासमती) बहुत स्वादिष्ट होती है, इसे मै मानुंगा, किन्त सुभे तो लङकपनसे ही मु हलगी गेहूँकी रोटियाँ जितनी प्यारी लगती है, उतना गन्धशालीका मात एक-दो दिन ही लगता है ! हम नमकके साथ उल हुये मांसखरडोको जितना रुचिके साथ खाते थे, उससे कहीं अधिक रुचिके साथ मगधवाले तली-भ्ुुनी मछलियोंको पसन्द करते हैं। संगीतके विषयमें भी लोगोंकी मिन्न-मिन्न रुचि है | महाचीन- वाले उन तन्तु (तार) वाले वीणा जैसे बाद्योंको ठच्छ समभते हैं, जिनकी ध्वनि हमारे कानोंको अत्यन्त प्रिय लगती हैं । उद्यान-निवासी रंग-रूपमें बहुत सुन्दर होते ह । चीनी यात्री यद्यपि हमारी वेष-भूषा और मध्यमंडल ( उत्तर-प्रदेश, बिहार) की वेश-मृषामें फर्क॑ नहीं करते, पर दोनोमें बहुत अन्तर है, यह हम जानते हैं | जिस रंगको मध्यमंडलमें गौर कहते हैं, उसे हमारे यहाँ काला कहनेसें मी सकोच नहीं किया जाता । सके मध्यमंडलमें जानेपर यह सुनकर हँसी आती थी, कि गर्भिणी माँके -साग खानेसे शिशुका रंग काला या साँवला हो जाता है, और खीर खानेसे सफेद | हमारे उद्यानमें तो एक मी काला या सबला आदमी देखनेको नहीं मिलता, ओर सागके मौसिममें हमारे यहाँकी गर्भिणियाँ खूब साग खाती हैं । में वो समभता हूँ, रूप-रग माता-पिताके कारण होता है। चीनी और ठुरुष्क लोगोंमें काले या साँवले आदमी नहीं दिखाई देते, लेकिन उनकी नाक चिपटी, गालोंकी हड्डियाँ उठी, आँखें अर्धस्फुटित तथा तिरछे ऊपरको उठी होती हैं । जहाँ हमारे चेहरों पर घनी दाढ़ी-मूछ होती हैं, वहाँ इन लोगोंके चेहरेपर केशों का नाम - न्रा पता लगता है । यह माता-पिताके कारण नहीं तो और क्यो! লী রজত




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