कृष्ण कुमारी | Krishna Kumaari
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
159
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)तीसरा अंक--- पहला रश्य १५९
मद०- ८ म्बगन ) वाह्, केसा गड़वड़भाला डाल दिया दै । एेसा
जाल फलाया हौ कि सव उसमें फेस जार्यँगे । अव जगदीदवर यह
कर कि इस गद्वद् स राजकुमारी क्रप्णा का कुं अमंगल नहो ।
-यन्छा, यह् सी तो वड़ा आचये 2! में एक वेया की महचरी,
वन्न की चिड़िया की तरह अपनी इन्छा के अधीन, संसार के पिजड़े
पं कभी न बंघधनेवाली होकर मी राजकुसारो को इतना प्यार म्यां
करने लगी हूँ ? राजकुमारी के स्वभाव ने मेरे ऊपर कौन-सा जादू डाल
दिया है ? सच है, लजा और सुशीलता ही नारी-जाति का अलंकार
21 भें और विलासवली, হালা इस समय केसी स्थिति में हैं, यह बात
इसी समय मुझे अच्छी तरह देग्व पढ़ रही टै। लो; वह धनदास
नो इधर ही आा रहा है।
( घनदास का प्रवेश )
मद ०--महाशय, आप अच्छे না ই?
धन०---अरे मदनमोहन, तुम हा ? अन्छे हो লাহ? মলা
त्रह अंगूठी तुमने कहाँ रख दी ?
मद्०--जी, आपसे कहते लज्ञा माल्म होती है । आप सुन
नंगे, तो नाराज़ होंगे।
धन०--इसके क्या माने ? में नाराज क्यों होगा ?
मद०--अच्छा, तो सुनिए । इस नगर में मदनिका नाम की
एक बहुत ही सुंदरी स्त्री है। उसी ने मुझसे बह आँगूठी ले ली है ।
धन०--छी-छी ! एेसा अमूल्य रन्न मो कोह वेश्या को दे देता
है ? तुम तो बिलकुल नादान देख पड़ते हो जी | इतनी थोड़ी अवस्था
में ही ऐसी ओरतों के पास जाना और बेठना-उठना क्या तुम्हें
वचित जान पड़ता है ९
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