कृष्ण कुमारी | Krishna Kumaari

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Krishna Kumaari by माइकेल मधुसूदन दत्त - Maikel Madhusudan Datt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तीसरा अंक--- पहला रश्य १५९ मद०- ८ म्बगन ) वाह्‌, केसा गड़वड़भाला डाल दिया दै । एेसा जाल फलाया हौ कि सव उसमें फेस जार्यँगे । अव जगदीदवर यह कर कि इस गद्वद्‌ स राजकुमारी क्रप्णा का कुं अमंगल नहो । -यन्छा, यह्‌ सी तो वड़ा आचये 2! में एक वेया की महचरी, वन्न की चिड़िया की तरह अपनी इन्छा के अधीन, संसार के पिजड़े पं कभी न बंघधनेवाली होकर मी राजकुसारो को इतना प्यार म्यां करने लगी हूँ ? राजकुमारी के स्वभाव ने मेरे ऊपर कौन-सा जादू डाल दिया है ? सच है, लजा और सुशीलता ही नारी-जाति का अलंकार 21 भें और विलासवली, হালা इस समय केसी स्थिति में हैं, यह बात इसी समय मुझे अच्छी तरह देग्व पढ़ रही टै। लो; वह धनदास नो इधर ही आा रहा है। ( घनदास का प्रवेश ) मद ०--महाशय, आप अच्छे না ই? धन०---अरे मदनमोहन, तुम हा ? अन्छे हो লাহ? মলা त्रह अंगूठी तुमने कहाँ रख दी ? मद्‌०--जी, आपसे कहते लज्ञा माल्म होती है । आप सुन नंगे, तो नाराज़ होंगे। धन०--इसके क्या माने ? में नाराज क्यों होगा ? मद०--अच्छा, तो सुनिए । इस नगर में मदनिका नाम की एक बहुत ही सुंदरी स्त्री है। उसी ने मुझसे बह आँगूठी ले ली है । धन०--छी-छी ! एेसा अमूल्य रन्न मो कोह वेश्या को दे देता है ? तुम तो बिलकुल नादान देख पड़ते हो जी | इतनी थोड़ी अवस्था में ही ऐसी ओरतों के पास जाना और बेठना-उठना क्या तुम्हें वचित जान पड़ता है ९




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