श्री जैन धर्मं प्रवेशिका | Shri Jain Dharam-prawesika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
186
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ক त = +
णंनध ९५ খাঁত্ঞ্লি
हिन्दू शब्द जेसे एक जाति का वाचक है, बौद्ध बद जेप व्यसिः का
वाचक है वसे जेन ५० किसी जाति या व्यक्ति का वाचक नहीं है किन्सु
एक विशेष गुण फा वाक्क है न्नेन छ्य मे निखाता है।
उदात्तता है ।
जिन! का अधे है जीतनेवाणा | किसको जीततेवाला ? क्षत्र. को
जोतनेषाऊझा । राग-द्वेष हो आत्मा के सच्चे दत्र है, मौर उनको जोतना
हो आत्मा की सच्ची जीत है । भत' राग दप को जीतनेवाला ही (जिन
है । जो जिन क। अपुयायी है, उनको शिक्षाओं के ,भचुसार चलता है
वह जन! है और जिन का जो उपदेश है, वही नेन है ।
जन! का एक लाक्षणिकत्र अर्थ यह भी होता है कि “जन! कहते हैं
मनुष्प को | और जब जित! पर क्षदुविचार ओर सदाचार को दो
भानायें ऊप जाती हैं. तो वह जेव कहलाने का अधिकारी हो जाता है।
है परिभाषा भी जतधम के गृणात्मक रूप को व्यक्त करतो है ।
जन को उत्त्तति कब से हुईं ? यह प्रश्व पिद्वेंतुसमाज में बहु
चचित रहा है। इस विषयम्र विद्वार्यों मे बहुत कुछ मतभेद रहा है ।
स्वाभी दधानन्द वर्गरह कई विद्वान जनथम को एक स्वतन्त्र घमन
मात कर बौद्ध धर्म को शाखा हो मानते हैं। পু विद्वान जेचधर्म को
स्वृतस्त्र धम मानते हुए भी उसके सस्यापक्त के ऊपर में भगवान मद्गावोर
को मानते हैं। कुछ विद्वाव भगवान् पाए्वव को हो जेन घर्म का
भाय प्रवतेक मानते हैं| किच्छु यह उनको अनभिज्ञता है। वैचारिक
User Reviews
No Reviews | Add Yours...