कृष्णकांत का वसीयतनामा | Krishnakant Ka Vasiyatnama
श्रेणी : उपन्यास / Upnyas-Novel
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
184
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कृष्णुकान्तका वसीयतनासा - १५
हर०--उस दिल तुम्हें किसने बचाया था १
रोहिणी--सुमने । तुम घोड़ेपर चढ़े हुए उस्ती मन्दिर की राह
कहीं जा रहे थे ।
हर०-साढीके घघर। ।
-त॒मने सुमे देखकर मेरी रक्ता की थी-मुे पालकी
ओर कदर बुलाकर घर भेजवा दिया था । खूब मजेमें याद् दै ।
वह् उपकार मेँ कमी भूल नदीं सकती ।
हर>--आज उस उपकारका बदला चुका सकती हो 1 उसपर
भी मुझे जन्मभरके लिये खरीद ले सकती हो--बोलो, करोगी ?
रोड লনা कहिये-मैं प्राण देकर भी आपका उपकार करूँगी ।
* हुर+-करो या न करो। रूकित यह वात किसीके सामने
प्रकट न करना ।
रो०--प्राण रहते नहीं ।
हर०--ऋप्म खाओ |
रोहिणीने कसम खाई ।
तच हरत्तालने करष्एकान्तॐ ्रसल और नकल विलकी वात्त
उसे समझा दी | अन्तमें उन्होंने कह्ा--“बही असली विल चोरी
करके जाली विज्ञ उप्तके बदले रख आना होगा । हमलोगोंके घर
तौ तुम वेरावर जा सक्ती दो । तुप्त बुद्धिमान हो, सहज ही यह
कांस कर सकोगी ! मेरे लिये च्या इतना करोगी ? `
रोदिणी कोप उढी । वोली--“चवोरी ? सुमे मारकर कड
हुकड़े कर देनेपर भो यह न कर सकूगी ।”
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