कृष्णकांत का वसीयतनामा | Krishnakant Ka Vasiyatnama

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Krishnakant Ka Vasiyatnama by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कृष्णुकान्तका वसीयतनासा - १५ हर०--उस दिल तुम्हें किसने बचाया था १ रोहिणी--सुमने । तुम घोड़ेपर चढ़े हुए उस्ती मन्दिर की राह कहीं जा रहे थे । हर०-साढीके घघर। । -त॒मने सुमे देखकर मेरी रक्ता की थी-मुे पालकी ओर कदर बुलाकर घर भेजवा दिया था । खूब मजेमें याद्‌ दै । वह्‌ उपकार मेँ कमी भूल नदीं सकती । हर>--आज उस उपकारका बदला चुका सकती हो 1 उसपर भी मुझे जन्मभरके लिये खरीद ले सकती हो--बोलो, करोगी ? रोड লনা कहिये-मैं प्राण देकर भी आपका उपकार करूँगी । * हुर+-करो या न करो। रूकित यह वात किसीके सामने प्रकट न करना । रो०--प्राण रहते नहीं । हर०--ऋप्म खाओ | रोहिणीने कसम खाई । तच हरत्तालने करष्एकान्तॐ ्रसल और नकल विलकी वात्त उसे समझा दी | अन्तमें उन्होंने कह्ा--“बही असली विल चोरी करके जाली विज्ञ उप्तके बदले रख आना होगा । हमलोगोंके घर तौ तुम वेरावर जा सक्ती दो । तुप्त बुद्धिमान हो, सहज ही यह कांस कर सकोगी ! मेरे लिये च्या इतना करोगी ? ` रोदिणी कोप उढी । वोली--“चवोरी ? सुमे मारकर कड हुकड़े कर देनेपर भो यह न कर सकूगी ।” ट ्




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