सिद्धान्त कौमुदी की अन्त्येष्टि | Siddhant Kaumudi Ki Antyeshti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ४ ) का एक अपूब ग्रन्थ प्रक्रिया कोमुदी की टीका अ्रक्रिया प्रकाश लिखा पर गुरू भक्त भट्टाजी को यह कब सहन हा सकता था कि प्रक्रिया काम॒दी से अपहरण कर संग्रहीत अपने ग्रन्थ ( सिद्धा-त कोभुदी ) के समक्ष ओर ग्रन्थ आदर पा सके, अतः इन्होंन गुरू भक्ति तथा गरू ऋण को प्रणाम कर गुरु रचित ग्रन्थ की घज्ियां बखरने पर कमर बांध ली, और ग्रन्थकर्त्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ लेकर उसमें अनक दापों का प्रकाश किया । इस पर शेप श्रीकृष्ण जी के पीत्र तथा पण्डितराज के गुरु शेष वीरेश्वर के पुत्र ने उसका वलपूवक निराकरण किया, उन्दीं स्थलों का उद्धरण पण्डितराज न किया तथा मनोरमा के अन्य स्थलों का भूले जनता के समत्त रक्खीं | इस पर भट्टाजो दीक्षित के पात्र पण्डित प्रकाण्ड हरि दीक्षित महोदय ने मनारमा पर टीका लिख कर दूषों को उद्धार करना चाहा, उस पर उन्हीं के शिष्य स्वनाम धन्य नागेश भट्ट ने शब्देन्दुशेखर की रचना की | विचार तो यह होगा क्रि दादा गुरु का समथन किया जाय पर विधना के मन आर है मेरे मन कुछ ओर । सत्य का अपहृव हो नहीं सकता। नागेश की लेखनी ने जोर मारा ओर सिद्धान्त कोमुदी का खण्डन करने में प्रवृत्त ह्यो उठी । आरम्भ में ही नागेश लिख बेठे “मनोरमो- माधं देहम्‌? अथात्‌ मनोरमा रूपी उमा के अधं को (अधंदा ईहा) काटने का जिसमें प्रयत्न हो? और किया भो ऐसा ही




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