वैदिक धर्म | Vaidik Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
42
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)অক ২]
्रादर्िसखधमन्ति वयो रोशिण एव च ॥
अनैषादक्षवंषस्य पञ्चवपोत्रस्य च |
प्रायश्चिते चरेत् 1 बान्वः सुद्जनः॥
आिहनिश्वर ने ये कोक अमिरा और हांख के नाम
पर दिए है | परंतु येद्दी शकेक देवर में जेसे $े वेसे
ही पाए बति हैं । (३० | ३१ )
इस प्रकार के और भी कई उल्लेख बताए जा
सकते है| आक्षा दै कि जो टोर्ग देव स्मृति की
प्राम्रजिकता के विषय में शकित हैं उन की হাব
इन सब बातों स नष्ट दा जानेंगी | देवरूस्मृति का
समर्थन फरनेषाले बहुत से प्रंथ हैं. और कई बडे
जीर सर्वमान्य प्रमे देवरप्यृतति के शेक उद्धत
किए गए दें | इन सब घातों को जानते हुए भी
देवलस्मृति की सत्यतापर।वैश्वास नकरना दीपशकी
मनुष्य का ६ काम दै।
कुछ वर्ष हुए कि मद्दाराजाधराज काइमार न-
रेस रणवीर सिंदजीने हँदुस्थान के बढ़े बड़े पंडिता से
^ इण वै।र-प्रावाक्षित नामक प्रंथ धनवाकर प्रका-
शित किया था। महामहोपाध्याय शिवदत्त शा-
হাজী ने उस में क| कुछ भाग “ स्लच्छीभूतानां
शाद्वि व्यवस्था” के ৃ से अछग श्रकाशित किया
है | उसमें पतित प्राक्षतन का सप्रमाण मंडन
या गया दै | बह बाग नीचे दिया जाता हैः
की प्रश्मान्नाये विप्णु १राणे-
4 झ्ञामतेइज्ञानतों वाक्पे भवष१वी5भकक्त्या पि-
वा हृतम् ; गंगास्तान स्वेविध सर्वपापप्रणाश-
মন্ ॥१| बाङ्गबणसदसेम्तु यश्चरेत्कायक्षोधनम्।
पिक्ेधप्ापि गंगास्म:समो स्थातां न वासमो॥२॥
भबन्ति निर्षिषा। सपी यथा ताश््यस्व दशेनात्
मंगाया इशानात्तइत्सभेषारै; प्रमुच्यते 8 ३॥ पुण्य
ইঙ্গারীৰণন रूवेपापप्रणशनम । देवता-
५
इासंस्कार ।
( ३५५]
स्वमन पुनामहवाधरविनाठनम् ॥४॥
भविष्य =
# खानमात्रण गगाया; पाप द्रहदय् दवम् |
दुराधप कर्य चाति चिन्ता वेषि ॥
वस्थू भवेद पाएं अद्चकोटिकधोडूवम । स्तुति-
वादमिय अतः कुश्मीपकेएु जायते । आशय
नरकं मुवत्व। ततो जागेत गर्दभ. ॥
इत्यदिवचले! ओगंगाताथिस्नानादें!: सूकलपाप
नाश्चकता सिध्यति । एवं बृहननाराय स्षेसाधारण
प्रायश्चित्तनि प्राक्तनि--
£ प्रायधित्तानि यः कयन्ञारायणपरायणः; नम्य
पापानि नश्यान्ति अन्यथा पतितो भवत् ॥ यरसु
रागादि नियुक्ते हयनुत।प समन्वितः । सर्वमूत-
दयायुक्तो विष्णुस्मरण तत्परः। मह।पालकयुक्तो
वा युक्ता वा हयुपपातकैः | सके: प्रभुच््यते
सदो येतो (विष्णुरतं मनः ॥
८४ इत्यादिनों विष्णुमक्तस्य नरमात्रम्य सकलू-
पापनाक्षादाभाहतः | इत्ये च इहत्र भरायाभित्तवि-
धायकं वचनेषु “नर ” इति सामान्य ॒पद्वोपाद्-
नाहुवाहसवचनेम्डेच्छादीनासपरि मगवद्धकन्यपिकार
मिद्ध; सर्वेषामपि स्वाधिकारस्वयाग्यतानुसारेण
वेदिकमागेन्मुखन्द निराधाष ধিছআবি। হত তব
त्रिपुरुषावधिनिश्चितसव्ण त्पत्तीकानां कामतो 511मतो
वा म्लेच्छे;सं सृष्टाना प्रायश्चित्ताचारणे न॒ पुनः चस
वर्णान्तगेतत्थपूेक धममप्राप्ति'। तुदृन्येषामपि श्रात्यत-
मानां मूढता म्लेच्छादीगां वा सलत्ामिच्छायां
नास्तिक्यत्यागेन भक्तिशास्त्राममंत्रायुपेदशता धिका र:
शुद्ृकमछाकराक्तसस्कायोदपातिश् सिध्यतीलत्र न'
कल्यचिक्डटाक्षाउस्र हति ভদ্ধত श्रुतिस्मृति
रणगितिष्ास्षपर्यासि वनानिगीभ्ति विमशों निष्पक्ष
पातषीमिः सुधीभिरनिपणे भिवारण्य दति दिग् |
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