वैदिक धर्म | Vaidik Dharm

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Vaidik Dharm  by श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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অক ২] ्रादर्िसखधमन्ति वयो रोशिण एव च ॥ अनैषादक्षवंषस्य पञ्चवपोत्रस्य च | प्रायश्चिते चरेत्‌ 1 बान्वः सुद्जनः॥ आिहनिश्वर ने ये कोक अमिरा और हांख के नाम पर दिए है | परंतु येद्दी शकेक देवर में जेसे $े वेसे ही पाए बति हैं । (३० | ३१ ) इस प्रकार के और भी कई उल्लेख बताए जा सकते है| आक्षा दै कि जो टोर्ग देव स्मृति की प्राम्रजिकता के विषय में शकित हैं उन की হাব इन सब बातों स नष्ट दा जानेंगी | देवरूस्मृति का समर्थन फरनेषाले बहुत से प्रंथ हैं. और कई बडे जीर सर्वमान्य प्रमे देवरप्यृतति के शेक उद्धत किए गए दें | इन सब घातों को जानते हुए भी देवलस्मृति की सत्यतापर।वैश्वास नकरना दीपशकी मनुष्य का ६ काम दै। कुछ वर्ष हुए कि मद्दाराजाधराज काइमार न- रेस रणवीर सिंदजीने हँदुस्थान के बढ़े बड़े पंडिता से ^ इण वै।र-प्रावाक्षित नामक प्रंथ धनवाकर प्रका- शित किया था। महामहोपाध्याय शिवदत्त शा- হাজী ने उस में क| कुछ भाग “ स्लच्छीभूतानां शाद्वि व्यवस्था” के ৃ से अछग श्रकाशित किया है | उसमें पतित प्राक्षतन का सप्रमाण मंडन या गया दै | बह बाग नीचे दिया जाता हैः की प्रश्मान्नाये विप्णु १राणे- 4 झ्ञामतेइज्ञानतों वाक्पे भवष१वी5भकक्‍त्या पि- वा हृतम्‌ ; गंगास्तान स्वेविध सर्वपापप्रणाश- মন্‌ ॥१| बाङ्गबणसदसेम्तु यश्चरेत्कायक्षोधनम्‌। पिक्ेधप्ापि गंगास्म:समो स्थातां न वासमो॥२॥ भबन्ति निर्षिषा। सपी यथा ताश््यस्व दशेनात्‌ मंगाया इशानात्तइत्सभेषारै; प्रमुच्यते 8 ३॥ पुण्य ইঙ্গারীৰণন रूवेपापप्रणशनम । देवता- ५ इासंस्कार । ( ३५५] स्वमन पुनामहवाधरविनाठनम्‌ ॥४॥ भविष्य = # खानमात्रण गगाया; पाप द्रहदय्‌ दवम्‌ | दुराधप कर्य चाति चिन्ता वेषि ॥ वस्थू भवेद पाएं अद्चकोटिकधोडूवम । स्तुति- वादमिय अतः कुश्मीपकेएु जायते । आशय नरकं मुवत्व। ततो जागेत गर्दभ. ॥ इत्यदिवचले! ओगंगाताथिस्नानादें!: सूकलपाप नाश्चकता सिध्यति । एवं बृहननाराय स्षेसाधारण प्रायश्चित्तनि प्राक्तनि-- £ प्रायधित्तानि यः कयन्ञारायणपरायणः; नम्य पापानि नश्यान्ति अन्यथा पतितो भवत्‌ ॥ यरसु रागादि नियुक्ते हयनुत।प समन्वितः । सर्वमूत- दयायुक्तो विष्णुस्मरण तत्परः। मह।पालकयुक्तो वा युक्ता वा हयुपपातकैः | सके: प्रभुच््यते सदो येतो (विष्णुरतं मनः ॥ ८४ इत्यादिनों विष्णुमक्तस्य नरमात्रम्य सकलू- पापनाक्षादाभाहतः | इत्ये च इहत्र भरायाभित्तवि- धायकं वचनेषु “नर ” इति सामान्य ॒पद्वोपाद्‌- नाहुवाहसवचनेम्डेच्छादीनासपरि मगवद्धकन्यपिकार मिद्ध; सर्वेषामपि स्वाधिकारस्वयाग्यतानुसारेण वेदिकमागेन्मुखन्द निराधाष ধিছআবি। হত তব त्रिपुरुषावधिनिश्चितसव्ण त्पत्तीकानां कामतो 511मतो वा म्लेच्छे;सं सृष्टाना प्रायश्चित्ताचारणे न॒ पुनः चस वर्णान्‍तगेतत्थपूेक धममप्राप्ति'। तुदृन्येषामपि श्रात्यत- मानां मूढता म्लेच्छादीगां वा सलत्ामिच्छायां नास्तिक्यत्यागेन भक्तिशास्त्राममंत्रायुपेदशता धिका र: शुद्ृकमछाकराक्तसस्कायोदपातिश् सिध्यतीलत्र न' कल्यचिक्डटाक्षाउस्र हति ভদ্ধত श्रुतिस्मृति रणगितिष्ास्षपर्यासि वनानिगीभ्ति विमशों निष्पक्ष पातषीमिः सुधीभिरनिपणे भिवारण्य दति दिग्‌ |




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