वैदिक धर्म दिसम्बर 1956 | Vaidik Dharm Disambar-1956

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Vaidik Dharm Disambar-1956 by श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उपानेषद्‌ू-दशने शाशाकै शौचित्यका यरनपूरक प्रतिवेध काता है। यदि 6 ज्ाननेका संकहप ^” इसे निर्वचन योग्य तथ्यका लक्षरश; वणेन माना जादा भौर इसमे शब्द्‌ टीक्‌ टोक दानिक होते तो यह लाक्षा उच्छ होती । परन्तु ये शब्द स्पष्टतया काग्यमय हैं भर इसलिये ताकिंक इश्टिसे क्पर्यापत हैं। इनका उपयोग केवछ इस अभिप्रायसे किया गया है कि ये मायाके तथ्यकों बादवके सामने पूणं होर सवथा क्षपर्याप्त रूपमें उपत्थित कर दें, क्षौर क्नन्तके साथ व्यवद्वारमें शानत वाणी ओर विचारक किए केवल यद्दी संभव है। बुद्धि ओर इच्छाकों जेसा हम समक्षे है उनकी कोहं क्रिया वस्तुतः षदा नदी हदं दे । तब फिर प्रश्न है कि क्या हुआ है ? माया क्‍या है ! वद ই জানের লাই? वेदास्त इख परश्चर] उत्तर भपनी प्रायिक द सच्चा भौर विचारकी क्षयक्त स्पष्टताके साथ देता हे वह एता है किम यह नदीं यता सकते, कारण न हम जानते है भौर न जाने सक्ते है; कमसेक्म हम बुद्धि्राद्य रूप डका निर्वचन नदी कर सक्ते) भोर यह इस कार्ण क्योंकि मायाका जन्म, यदि कोई जन्म हूना दै तो, इत सारो दूमरी दिशम, देश, कार भौर कार्यकारण. भावकी उत्पत्तेसे पहले हुआ है। थोडा विचार करनेसे यह घात स्पष्ट हो जाती है कि जिप्त ध्योतिम्रय प्रतिबिस्बरको हम परब्रह्म कदते हैं उसके दोनेमें भी मायाकी भनिवायं- तया भावश्यकता है । यद्द एक ऐसी वस्तु है जो कि काकसे पहले बहुत बुर न्धकारमप अतीतमें भोर रखातलमें हुईं है, वह देष ऋृपस्था, शक्ति या क्रिया हे, ( उसे जो कुछ भी नाम चादे हवे सक्ते) जो कि उ निरपेक्ष साक्षात्‌ क्रिया करती है जो कि लस्तित्व रखता है किन्तु दम उसे अपने विचारमें नहीं छा सकते, जो कि तथ्य रूपमें केवल प्रत्यक्ष किया जा सकता हे इसकी ध्याख्या या इसका निर्षेचन नहीं किया जा धकता । हसलिए हम कद्दते हैं कि माया एक হ্ঘী वस्तु है जो कि क्षनिर्देश्य है; हृसका दम निवेचन नहीं कर सकते, इधके विपयमें दम यद्द नहीं कह सकते कि यह है, कारण यद भ्रम है, भर यद्द मी नहीं कद्द सकते कि यह बही हे, कारण यह विश्वो जननी (माता) है। हम केवह यही भनुमान कर पक्वे हैक वों फली बतु (९७१) है जोकि ब्रह्म ही सत्तामें क्न्तर्निद्वेत है भौर इसलिए उत्पन्न म होकर नित्य होनी चाहिये, काक्ृगत न ट्योकर काछसे बाहर द्वोनी चाहिए । बपने हेतुवाक्योंसे हम इतने ही विषयपर पहुंच घकते हैं। इससे अधिक जाननेका दिखावा करता भसलयता होगा | तब भी माया केव कल्पित वस्तुमात्र नहीं है भौर न इसको सत्ता ऐसी है कि जो छिद्द न की जा सके। वेदान्त यह सिद्ध करनेकं किए तैयार ह ® माया ह; वहं यद्द दिखानेके छिये भी तेयार दे कि माया क्या है, न कि चरम तरवके रूपमें भपितु परबद्मके भन्तगंत भौर विश्वर्तें भमिव्यक्त रूपमें । वह यह वर्णन करनेके छिए भी तैयार है कि डसने किस प्रकार विकाप्तकार्य प्रारंभ किया, वह बौद्धिक भाषाके रूपमें यह भी डप स्थित करतेक लिए तियार है कि माया विश्वद्नी सम्पूर्ण ब्यवस्थ!क्ो पृर्णतया संभव म्याख्या है, वह यष भी कहनेशो तैयार है कि पत्ताके खमावके साथ भर वेज्ञानिक पृठे दाशनिक सत्यके माने हुए आधारोंके साथ पूर्णतया संगत यही एकमान्न ब्याख्या है | तरद्द केवक बातके लिए तैयार नहीं है कि वह मायाके चरम नन्त धवरूप और मूछको पुेसी ठीक दीश भाष डपस्थित करे कि जिसे शान्त मन ग्रहण कर सके कारण दाशनिक असंभवताओं छो लेभव बनानेके किए प्रयास करना एक बौद्धिक विकासता है जिसमें मनोरंजन करनेके छिए घेदान्तीके विचार अत्यधिक হব ই। सद फिरमायाक्णहे? जदांतक हम बुद्धिस सोच शते हैं उसके धनुप्तार माया है प+बह्मके स्वयं स्वरूपके झन्तगंत एक भान्वरिके भावदयकता, उसकी अपनी भाव. श्यङ्ता। हम यद देख चु हैँ कि परब्रह्म हमे तीन विषयी- गत मावो জীহ उनके भनुरूप तीन विषयरूप भावों जो कि इसकी पत्तके मूलभूत स्वरूप हैं, दाश्गोचर होता है । परन्तु परब्रह्म वह ब्रह्य है जसा क उसे जीवने लपने मूल कारणकी भोर पुनरावत्तेन करते समय देखा है; अहम क्षपने संकल्पसे, मायाके रुपमें बहिगेत हुआ, मायाके पदोके साथ ओो कि श्राघे उठे हैं पूरी तरद दूर फेंके नहीं गये हैं, क्षपने भापको देखता है। मायाके रूप दूर हो गये हैं किन्तु अपने मूछ स्वरूपकी झोर जानेवाके जीवके पीछे ड्कोढोके द्रारपर मावाका मूछरूप विधमान है ।




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