दर्शन कथा भाषा | Darshankatha Bhasha

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Darshankatha Bhasha  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १७ ) पद्धर-पढ़ाराज, हुकृप्र छाब्ो जु झड़, ন্তন্লল ভুই নন ही जु सार। सब पहुंचे नगर दुकान जाय, निनसों तब थे कते वनाय ताय ॥ १४० ॥ महागज यद्र कांच जे सास. चक्की र सब चलो हील ना करे कोय | इतनी सुन जोहरी न ग, मने कीनो एसे विचार ॥ १४१ ॥ यह क्रारण फन भयो ज़ फोयः सवी वुच्वये रेन कोय । मव छुग्क समध्र परता जे कीन; याको मुविचार करो प्रवरीन ॥ १०२ | अब इक जुवाब करियो ज॒ सोय, फिर आर जुबाव करो न कोय विदन्त सेठपर धरों भार, जुरे ज॒ चने दरवार टर ॥ ॥ १४३ ॥ सब पहुंचे सो दग्वार जाय, नपने समन्पान करो यनाय | पाननके वीड़े दिये सोय, जा भूपतिके सनन्‍्मान हो ॥ १४४ ॥ फिर पूछे इंसक्रे तब राय, सब जोहरी बात सुनो वनाय | गजमोती तुम पढ़ा करेहु, नो दाम छो सो तुरत लेहु ॥ १४५॥ अव्र होनदार निने ज হী) ताड़ो मटन- वारो न फोय। अब दोनहारको जोग सोय; दिमदन सदर एस नरह हेय ॥ ॥ १४६ ॥ अव दी महारात चुनो नो सोय, गनमोती पा नहिं होय । फिरकर पूछे শী लगे राय, ताभी धल नाद कराय ॥ १४७ ॥ वसाते घ्रून परै जाय) परजरे भूत तेसे जछाय। अब तो निज धग धर्‌ जाहु सोय; रस बातकी चिंता कछु न होय ॥ १४८ ॥ दिन दोय चार दथ वीस माहिं, छह महिना बरभनभ শ্বলাহি। गजमोती फट अब दिखें जोय, म खा भरं तवर सच ० फण्‌ =




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