योगवासिष्ठ [भाग ३] | Yogvasishtha [Part 3]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१ स] भाषानुवादसहित ५ तयैव ज्ञानकर्मभ्यां जयते परमं दम्‌ ॥ ७॥ केवलात कमणा ज्ञानात्रहि मोक्षोऽभिजायते | किन्तरूमास्यां भवेन्मोक्षः साधन तूभयं विदुः ॥ ८ ॥ अस्मिन्न परादृत्तमितिदासं वदामि पे। कारण्याख्यः पर कथिद्‌ बाह्मपोऽधीतवेदकः ॥ ९ ॥ अग्निवे्यस्य पुत्रोऽभूद्‌ वेदवेदाङ्गपारगः । गुरोरधीतविद्यः सनाजगाम মৃহ प्रति।॥ १०॥ एकसे नहीं, वैसे ही ज्ञान और कर्म दोनोंसे परमपदकी प्राप्ति होती है। तातपये यह है कि जैसे आकाश-मार्गसे जानेवाले पक्षी अपने अभीष्ट देशमें जानेके लिए दो परोंके द्वारा ही उड़ कर जा सकते ह, एके नदी; पैसे दी द्वप्णोः परमंपदम्‌, इत्यादि श्रुतिसे जिस परमपद केबत्यका वणन किया गया है, उसको अधिकारी छोग अपनी आत्मामें ही ज्ञान और कर्म दोनोंसे प्राप्त कर लेते हैं, अतः ज्ञान और # कर्म दोनों मोक्षके कारण हैं | ७ ॥ पूर्वोक्त अर्थकों चढ़ करनेके लिए फिर कहते हैं--किवलात्‌' इत्यादिसे । केवल कर्मोंसे या केवरु ज्ञानसे मोक्ष नहीं होता, किन्तु ज्ञान और कर्म दोनोंसे मोक्ष होता है, अतः बश्मज्ञ बढ़े बड़े मुनि कर्म और ज्ञान दोनोंको मोक्षके प्रति . साधन मानते हैं। इसलिए अनुभवसिद्ध विपयमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं करना चाहिए ॥ ८ ॥ हस विषयमे एक प्राचीन इतिहास कहता हँ--आरचीन कालमें सम्पूर्ण वेदोंका जाता कारुण्य नामका एकं ब्राह्मण था, उसके पिताका नाम अभिवेश्य, था। गुरुजीसे ४ यौ शाम ओर कर्मैगा समुचय मोस दे दै, ठेस प्रतिप्रादन नहीं किया गया है, किन्त प्रे वर्मानु्न द्वारा चित्ती छदि दोनेपर ज्ञान द्ोता है, तदन्तर सुक्ति होती है, यों शानमें टी साक्षार्‌ मुक्तिकी द्ेतुताम प्रतिपादन किया गया हैं; इसलिए पत्चीगा दष्ानो ते ओर करके यौगप ( स्वहपसयुचयमं ) नहीं समझना चाहिएं, किन्तु कमसमुचयमें समक्षमा चाहिए, क्योकि परयति ओर निरेति ( वत्र्तत ) एफ समयम नदीं हो सवती, दते भी जने षले कमौकी अस्तिता अर्योत. प्रतीत चोती है । जसे दषणं की चस्ुरा प्रतिविम्ध - पइनेके पहले दर्पणवा परिमाजन और ग्रताश दोनों अपेक्षित होते हैं, क्योकि उनके बिना उसने प्रतिविम्ब ही नहीं हो सकता, बैसे ही अविद्या-मंडकी निउत्तिमें चित्तरी छद्धि और ग्रमाणसे बम होनेत्ाली गद्वत्ति ये दोनों अपेक्षित हैं, क्योकि अंशद् चित्तवाडेओों हर बार श्षवत करमेपर आत्मज्ञनहूप फलकी श्रात्ति नहीं देखी जाती ।




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