राम कथा | Ram Kathaa

Ram Kathaa by गोपाल उपाध्याय - Gopal Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जीवन का सत्य राम-राज्य की व्यवस्था की पुनःपरिणति आज नहीं चाहता अपना राज्य शासक को बरज सकने का साहस जिस व्यवस्था में हो जहाँ लोभ- लालच चोरी-डकैती न हो जहाँ सबकी आवश्यकताएँ पूर्ण हो जाती हों जहाँ शिक्षा और स्वास्थ्य की पर्याप्त सुविधा हो जहाँ लोगों में अपने-अपने काय के प्रति लगन और निएठा हो दुर्भावना न हो परस्पर मेल और मित्रता हो एकता और अपनापन हो जहाँ जन के शोषण का स्रोत सत्ता न हो सके जन के कल्याण के लिए शासन के स्रोत खले रहते हों समता हो विषाद न हो रोग- दोक न हो--ऐसे ही समाज की कल्पना तो करता है आदमो । आवद्यकताए जहाँ पूर्ण हो जाती हों वहाँ निश्चय ही कृषि और उद्योग विकसित होगा आर्थिक दोपण की आवश्यकता नहीं होगी । राम एक ऐसी व्यवस्था के उन्नायक और सर्मापित व्यक्ति हैं जिनका अपना सुख दूसरे की आँख में आँसू न देखने में निहित है जिनका अपना दुःख दूसरे की पीड़ा का अनुभव और आत्मसात है । इस नाटक को लिखने की प्रेरणा का यही कारण रहा है कि मैं अपने जिन विचारों के साथ पाठकों को जोड़ना चाहता था उमके लिए राम-कथा मुभे बेहतर माध्यम लगी । इसके द्वारा मेरा सोच मेरे विचार मेरी भावना इस देश के संस्कारनिष्ठ लोगों तक इस प्रभावशाली सदाक्त कथा के माध्यम से पहुँच सकती है ठीक-ठीक अभिव्यक्त हो सकती है । नाटक का रूप देने से मंचस्थ हो जाने पर आकाशवाणी या दरददान के माध्यम से बड़े प्रेक्षागटों खले रंगमंचों या गाँव की चौपालॉपर खेले जाने से इस कथा का इसके पात्रों का सीधा साक्षात्कार एकबारगी ही अनेक लोगों ते हो सकता है जो स्वयं लेखक की बातों विचारों से जुड़ जाते हैं । काव्य या उपन्यास की अपेक्षा नाटक अभिनीत करने से यही बड़ी सुविधा मिलती है कि रचना दशक से घिल्कुल अपनेपन के साथ सह- भागी स्तर पर जुड़ जाती है और एक-एक व्यक्ति के बजाय एक बार ही अनेक लोगों तक पहुंच जाती है । नाटक लिखने वाले ही जान सकते हैं कि नाटक साहित्य की दूसरी विधाओं से अधिक कठिन काम है । सोमित स्थान सीमित दृद्य में ही सारे प्रभाव देने होते हैं । संवादों में ही वह सब कुछ प्रकट कर देना होता है जो कथोपकथन के उत्तर और अतिरिक्त होता है । उपन्यास और वाव्य की तरह का विस्त॒त कंनवास नहीं होता नाटककार के पास । एक बात और । उपन्यास और काव्य व्यक्तिगत स्तर पर पढ़ा जाता है नाटक सामूहिक रूप से देखा जाता है दशक को अधिकार होता है कि वह उसके किसी अंश से भी अगर प्रभावित नहीं होता तो उसे रह कर दे । प्रति- क्रिया बेयक्तिक नहीं सामूहिक होती है । इसलिए नाटककार की जिम्मेदारी कुछ टूसरी तरह की होती है--सर्वप्रियता की लोकप्रियता की । तुरन्त जवाबदेही की- शाध




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