भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान | Bhartiya Sanskarti Main Jain Dharam Ka Yogdan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Bhartiya Sanskarti Main Jain Dharam Ka Yogdan by डॉ हीरालाल जैन - Dr. Hiralal Jain

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about हीरालाल जैन - Heeralal Jain

Add Infomation AboutHeeralal Jain

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
जैन धर्म की राष्ट्रीय भूमिका [ ३ निर्वाणं श्रादि के निमित्त से उन्होंने देश कौ पद पद भूमि को अपनी श्रद्धा व भक्ति का विपय बना डाला है। चाहे धर्मप्रचार के लिये हो भौर चाहे प्रात्मरक्षा के लिये, जैनी कभी देश के बाहर नहीं भागे । यदि दुभिक्ष झादि विपत्तियों के समय वे कहीं गये तो देश के भीतर ही, जैसे पूर्व से पश्चिम को या उत्तर से दक्षिण को । झौर इस प्रकार उन्होंने दक्षिस भारत को भी अपनी इस श्रद्धांजलि से वंचित नहीं रखा । वहां तामिल के सुदूरवर्ती प्रदेश में भी उनके अनेक बड़े बड़े झ्राचायं व ग्रंथकार हुए है, पौर प्रनेक स्यान उनके प्राचीन मंदिरों आदि के घ्वंसो से श्राज भी अलंकृत हैं। कर्नाटक प्रांत में श्रवशवेलगोला व कारकत्न श्रादि स्थानों पर बाहुबलि की विशाल कलापूर्ण मूत्तियां आज भी इस देश की प्राचीन कला को गौरवान्वित कर रही हैं। तात्पर्य यह कि समस्त भारत देश, भ्राजकी राजनैतिक दृष्टिमात्र से हो नहीं, कितु श्रपनी प्राचीनतम धामिक परम्परानुसार भी, जैमियो के लिये एक इकाई और श्रद्धाभक्ति का भाजन वना है । जैनी इस बात का भी कोई दावा नहीं करते कि ऐतिहासिक काल के भीतर उनका कोई साधुओं या गृहस्थों का समुदाय बड़े पैमाने पर कहीं देश के बाहर गया हो भौर बहां उसने कोई ऐसे मंदिर झ्रादि अपनी घामिक संस्थायें स्थापित की हों, जिनकी भक्ति के कारण उनके देशप्रेम में लेशमात्र भी शिधिलता या विभाजन उत्पन्न हो सके 1 इसप्रकार प्रान्तीयता की संकुचित भावना एवं देशवाह्य अनुचित अनुराग के दोषों से निष्कलंक रहते हुए जैनियों की देशभक्ति सदैव विशुद्ध, अचल झौर स्थिर कही जा सकती है। देशभक्ति केवल भूमिगत ही हो सो बात नही है। जैनियों ने लोक-भावनामों के संबंध में भी प्रपनी वही उदार नीति रखी है। भाषा के प्रश्न को ले लीजिये। वैदिक परम्परा मे संस्कृत भाषा का बड़ा आदर रहा है, और उसे ही दैवी वाक्‌ मानकर सदव उसो मे साहित्य-रचना की है 1 इस मान्यता का यह परिणाम तो प्रच्छ हमरा करि उसके दारा प्राचीनतमं साहित्य वेदों प्रादि की भले प्रकार रक्षा हो गर्ईतथा भाषा भी उत्तरोत्तर खूब मंजती गई । किन्तु इससे एक बड़ी हानि यह हुई कि उस परम्परा के कोई दो तीन हजार वर्षो में उत्पन्न विशाल साहित्य के भीतर ततृतत्‌का- लिक भिन्न प्रदेशीय लोक-भाषाओ्रों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं हो पाया । भगवान्‌ सुद्ध मे श्रपने उपदेश का माध्यम उस्र समय को एकर लोक-मापा मागधौ को बनाया और अपने शिप्यों को यह आदेश भो दिया कि धर्म उपदेश के लिये लोकभापाों का ही उपयोग किया जाय । किन्तु बौद्ध परम्परा के साहित्यिक उस भ्रादेश का पूर्ण- तया पालन न कर सके | उन्हें एक पालि भापा से ही मोह हो गया भौर वह इतना




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now