श्री अरविंद के पत्र भाग - 1 | Shri Arvind ke Patra Bhag - 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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30 श्रीअरविन्दके पत्र ऊध्वंसे तैयारी करनेवाले अवतरणके कारण অন प्राणजगतृपर दबाव पड़ता है तो वह जगत्‌ साधारणतः अपनी कुछ चींजोंकों मानवजगतुके अंदर निक्षिप्त कर देता है। प्राण-जगत्‌ बहुत विशाल है अर विस्तारमें मानवजगत्‌की सीमाके पार बहुत दूरतक फला है। परंतु सामान्यतः वह अवतरणके द्वारा नहीं, वल्कि प्रभावके द्वारा प्रमुत्त जमाता है। पर इसमे संदेह नहीं कि प्राणजगत्‌का यह भाग सदा ही यह प्रयास करता है कि वह मनुष्यजातिको अपने राज्यके अधीन बनाये रखे और उच्चतर ज्योतिको रोक रखे। © प्राोणिक अवतरण अतिमानसिक अवतरणको रोक नहीं सकता-- उससे भी अधिक कम (प्रागशक्तियोंद्रारा) अधिकृत राष्ट्र अपनी भीतिक शक्तिके द्वारा इसे रोकनेमें समर्थ होंगे, क्योंकि अतिमानसिक भवतरण मुख्यतः एक आव्यात्मिक व्यापार है जो अपना आवश्यक बाहरी परिणाम अवश्य उत्पन्न करेगा। पहलेके प्राणिक अवतरणोंने ज्योतिके नीचे उतरनेपर उसे दूपित कर दिया था, जैसे कि ईसाई-बर्मके इतिहासमें उसने ईसाकी शिक्षाओंपर अपना अधिकार जमा लिया, उसे मिला- जुलाकर कमजोर वना दिया और किसी सुविस्तारित संसिद्धिसे वंचित कर दिया। परंतु अतिमानस अपने यथार्य रूपमें एक ज्योति है जिसे विकृृत नहीं किया जा सकता, वशतें कि वह अपने समुचित अधिकारके साथ आर अपने निजी स्वरूपमें आये। जब अतिमानस अपनेको पीछे रोक रखता हैँ और चेतनाकी निम्नतर शक्तियोंकों एक क्षीण और पथश्रष्ट सत्यका उपयोगं करने देता है, केवल तमी प्राणिक शक्तियां ज्ञानको अधिकृत कर सकतीं और अपनी उदश्य-सिद्धिमे प्रयुक्त कर -सकती हैं। © सावारण विचारणीय विपयके वारेमें तुम जो कुछ कहते हो उस सबका सास्-तत्त्व यह निकलता है कि यह घोीमे विकास-क्रमवाला एक जगत्‌ है जिनमे मनुष्य पमुमेंसे मिकछा है और अभी भी उससे बाहर नदीं निकला है; अंवकारमेंसे प्रकाश, और सबसे पहले एक मृत और उसके वाद एक संघर्षकारी और विक्षब्ध अचेतनतामेंसे एक उच्चतर




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