श्री भागवती कथा [खण्ड - 27] | Shri Bhagwat Darshan [ Khand - 27 ]
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
229
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मृत्यु का भय ११
भागवती कथा की वात सो वह कहने योग्य नहीं है। वर्ष के
अन्त में पाँच छे सहस्त्र का घाटा होता है । उसे घाटा कहना भी
उचित नही । उसको दक्षिणा से जो कुछ आता है उसे सव लोग
खा जाते है। अन्न भा जाता है ऊपरी कार्यो में व्यय हो जाता
है। नित्य डाकधर की आशा लगाये रोग वेढे रहते है, आज कु
आ जाय तो दाल आ जाय नमक आ जाय | वर्ष के अन्त में जो
घाटा हो जाता है, भगवान् किसी न किसी से पूरा करा हो देते
है। प्रथम वर्ष देहरी के लाला सूरजनारायणजी ने अपने इष्ट
मित्रों से कर करा के ५-७ हजार. रुपयेसे उसे पुरा किया,
दूसरे में भरिया के वीरम वाबू ने पाँच हजार देकर गाड़ो
चलायी । अब तीसरे वर्ष भी पस्टम चल रही है। रही मेरी
बात सो, मेरे परिचित सभी जानते है मेरे कुछ कृपालु महानु-
भाव हैं, जिनसे मैं किसी से चार पंसे किसी से दो पंसे नित्य के
भिक्षा ले लेता हूँ । ऐसे कुछ “भिक्षा सदस्य” हैं । पहिले लोग
उत्साह और श्रद्धा से देते थे। जबसे “भागवती कथा” का
व्यापार आरम्भ हुआ है। छोगों की श्रद्धा घट गयी हैं। सब
सोचते हैं--“अब तो ये व्यापार करने लगे हैं। जैसे हम बसे ये
इन्हें भिक्षा देने से क्या लाभ ?” इसलिये बहुत से बन्द भी कर
दिये है। फिर भी कुछ वर्गीचे में साग भाजी वो लेते हैं। छस्टम
पस्टम काम चल ही जाता है। मेरा जो व्यापार है, उसमें या
तो घाटा ही घाटा है या छाम ही लाभ है। घाटा तो इसलिये
कि कभी इसमें आथिक लाभ न होगा । दश आय होगी, तो बीस
व्यय होंगे। लाभ इसलिये हैं, कि जो भी कमी पड़ेगी লাই ই
करके करें चाहें चें करके, लोगों को पूरी ही करनी होगी।
इसलिये हमें तो छाभ ही छाभ है नदी में नौका डूबतो
है, तो मल््लाह की तो केवछ लेगोटी हो भीगती है। ऐसी दशा
में यहाँ डाका डालकर कोई क्या लेगा 1 जानते हुए भी सन्देह
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