नन्दिसूत्रम भाग - 10 | Nandisutram Bhag - 10

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Nandisutram Bhag - 10  by हरिभद्र सूरी - Haribhadra Suri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ न्यायप्रवेशपश्चिकाकी प्रशस्तिका उपर जो उछेख किया है उसके শরম ' श्रीक्रीचन्द्रसरिका ही पूर्वावस्थामें पाश्वे- देवगणि नाम था ' ऐसा जो उल्लेख है वह खुद प्रन्थप्रणेताका न होकर तत्काीन किसी शिष्य -प्ररिष्यादिका टिखा हुभा प्रतीत होता है । अस्तु, कुछ भी हो, इस उल्लेखसे इतना तो प्रतीत होता ही है क्रि-श्रीचन्द्राचार्य ही पार्श्देव गणि है या पार्श्रदेवगणी ही श्री श्रीचन्द्रसूरि हैं, जिनका उल्लेख धनेश्वराचायने साधशतकप्रकरणक्री वृत्तिमें किया है । भ्रीभ्रीचन्द्रहधरि का आचायेपद श्रीश्रीचन्द्रसूरिका आचायेपद किस संवतमें हुआ ” इसका कोई उल्लेख नहीं मीलता है, फिर भी आचायेपदप्राप्िके बाद- की इनकी जो प्रन्थरचनायें आज उपलब्ध हैं उनमें सबसे पहली रचना निशीथ धूर्णिविशोदेशकव्यारुया है। जिसका रचना- काल वि. सं. ११७४ है। बह उलछेख इसप्रकार है--- सम्यक्‌ तथाऽऽम्नायामावादत्रोक्तं यदुत्तरम्‌ () । मतिमान्धादरा किञ्चित्‌ क्षन्तव्य श्रतघरेः कृपाकलितेः ॥१॥ श्रीशीलमद्रद्रीणां रिष्यै- श्रीचन्द्रह्रिमिः । विंक्षकोदेक्षकन्याख्या दग्धा स्वपरदेतवे ॥२॥ वेदाश्रुद्रसङ्ख्ये ११७४ विक्रमसंवत्सरे तु मृगशीर्षे । माघसितद्वादश्यां समर्थितेयं रबौ बारे ॥३॥ निशीथचाूर्णिविशेदिशकब्यास्याप्रशस्तिके इस उलछेखको और इनके गुरु श्री धनेश्वराचायेक्र। सार्धशतकप्रकरणबृत्तिकी प्रशस्तिके उल्लेखको देखते हुए, जिसकी रचना ११७१ में हुई है और जिसमें श्रीचन्द्राचाये नाम न होकर इनकी पूर्वा- बस्थाका पार्श्रदेवगणि नाम ही उलिखित है, इतना ही नही, किन्तु प्रशस्ति के ७ वैँ पथमे जो विरोषण इनके लिये दिये हैं वे इनके लिये घटमान होनेसे, तथा खास कर पाटन-खेत्रवसी पाडाकी न्यायगप्रवेरापञ्चिकाकौी प्राचीन ताडपत्रीय प्रतिके अंतमें उनके किसी विद्वान शिष्य-प्रशिष्यादिने- “ सामान्याबस्थाप्रसिद्धपण्डितपाश्वैदेवगण्यमिधान-विशेषावस्थावापश्रीश्री चन्द्र - खूरिनामभि” ऐसा जो उछेख दाखिल किया है, इन सब का पूर्वापर अनुसन्धान करनेसे इतना निश्चित रूपसे प्रतीत होता है कि- इनका आचायेपद वि. स. ११७१ से ११७४ के ब्रिचके किसी वर्षेमें हुआ है । ग्रन्धथरचना प्रन्थरचना करनेवाले श्रीश्रीचन्द्राचाय मुझ्यतया दो हुए है । एक मंलधारगच्छीय आचाय श्रोहेमचन्द्रसूरिक शिष्य और दूसरे चन्द्रकुलीन श्री धनेश्वराचार्यके शिष्य, जिनका पूर्वावस्थामें पाश्वेदेवगणि नाम था । मलधघारी श्रीश्रीचन्द्रसूरिक रचे हुए आज पयेतमें चार ग्रन्थ देखनेमें आये हैं-१ सम्रहणी प्रकरण २ क्षेत्रसमासगप्रकरण ३ लुघुप्रवचनसारोद्धाटप् करण और ४ श्राकृत मुनिसुततस्वामिचरित्र । प्रस्तुत नन्‍दीसूत्रवृत्तिदुगेपदब्याझ्याके प्रणेता चन्द्रकु्नीन श्रीश्रीचन्द्राचार्य को अनेक कृतियाँ उपलन्ध होती हैं, जिनके नाम, उनके अन्तकी प्रशस्तियोंके साथ यहाँ दिये जाते हैं--- ;| (१) न्यायप्रवेशपशञ्ञिका और (२) निश्नीयचूर्णिविशोदेशकव्याख्याके नाम और प्रशस्तियोंका उल्लेल्न उपर हो चूका हैं। (३) श्राद्तिक्रमणसूजहत्ति | रचना संबत्‌ १२२२ । प्रशस्ति-- कुबलयसदूविकासप्रदस्तम प्रहतिपटुरमलबोधः । प्रस्तुततीर्थाधिपतिः श्रीवीरशिनेन्दुरिद् जयति ॥१॥ विजयन्ते हतमोहाः श्रीगोतममुझ्यगणघरादित्याः । सन्मार्गदीपिकाः ऋृतसुमानसाः जन्तुजाड््यमिदः ॥२॥ नित्य प्राप्तमहोंदयत्रिभुवनक्षीरान्धिरत्नोत्तमं, स्वग्योंतिस्ततिपात्रकान्तकिरणैरन्त स्तमोमेदकम्‌ | स्वच्छातुष्ठसिताम्बरेकतिलक विश्वत्‌ सदा कौमुदं श्रीमत्‌ चन्द्रकुलं समस्ति विमरूं जाब्यक्षितिप्रत्यक्म ॥३॥ तस्मिन, सूरिपरम्पराक्रमसमायाता बृहसामबाः सम्यनज्ञानयुदसौनातिविमछश्रीप्खण्डोपमाः । स्ारितरविमूषिताः शमधनाः सद्धमेकल्पांहिषा विल्याता सुवि सूरयः सममवन्‌ श्रीहीखमद्रामिषाः ॥४॥




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