पंडित रतनचन्द जैन मुख्तार व्यक्तित्व कृतित्व - 1 | Pandit Ratanchand Jain Mukhutar-1

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जवाहरलाल जैन सिध्दांतशास्त्री -Jawaharlal Jain Sidhdantshastri

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डॉ चेतनप्रकाश पाटनी - Dr Chetanprakash Patni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १० ] (५) श्री पं० रतनचन्द मुख्तार उन महापुरुषों में थे जिनमें स्वध्याय की भ्रत्यध्िक लमनथी। वे अपना अधिकांश सजय स्वाध्याय, चिन्तन, मनन तथा नोट्‌स बनाने में लगाते थे । उभके समय में इतना स्वाध्यायशील कोर साधु, बिद्रान्‌ या श्रावक नहीं था। उनमें ञान की जितनी प्रधिकता थी, विनम भी उतनी ही भधिकं धी। उनकी समीक्षा में दूसरे की भ्रवमानना का भाव नहीं था। बिल्कुल वीतरागचर्चा थी और वह भी सिद्धान्त के धनुसार । प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रकाशन न केवल श्री मुख्तारजो के प्रति हंतशता-शापन का साधन है भ्रपितु इसमें चारों भनुयोगो का सार संकलित है। सामान्य श्रावक की बात जाने दें, भनेक ऐसी शंकाझों का समाधान इस ग्रन्थ में है जिन्हे विद्धान्‌ भी नहीं जानते । यह ग्रन्थ एक भ्राचायंकल्प विद्वान्‌ द्वारा प्रणीत ग्रन्थ की भांति स्वाध्याय योग्य है। मैंने तो निश्यय किया है कि इसमें संकलित सभी शंकाओं के समाधानों की एक-एक पक्ति पढ़गा। शंकाझों के प्माधान से न केवल ज्ञान की वृद्धि होगी बल्कि घम के प्रति भास्था भी द्दृ होगी । सम्पादकों के प्रथक श्रम की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है | मैं उन्हें साधुवाद देता हूँ । बितांक १२-१०-४८८ ---डॉ. कन्छेदीलाल लेन, रायपुर (स«्प्र.) (६) प्रादरणोय स्व* ब्र° पं» रतनचन्दजी मुख्तार आागमचक्ष्‌ ““.' पुरुष थ । जीवराज ग्रन्थमाला दारा होने वाले 'धवला' ग्रन्थों के पुनमु द्रण में श्राप द्वारा निमित शुद्धिपत्रों का सहयोग पण्डित जवाहृरलानजी के माध्यम से प्राप्त हृभ्रा, एतदथं यष संस्था इन दिवंगत ब्र ° पण्डितजी के महान्‌ उपकारका स्मरण करती है। इनके पूरे जीवन चरित्र तथा शंका समाधान কন विचार-साहित्य-संग्रह का विशाल स्मृति प्रन्प रूप से प्रकाशन प्रशंसनीय दै । दिनांक ३-११-८८ --षं० नरेग्रकमार जेन, न्यायती्ं, सोलापुर ( महाराष्ट ) (७) स्व० पण्डितजी की काया कालकवलित हो चुकी परन्तु उनका पहाडमा विशाल, अचल, गगनचुम्बी व्यक्तित्व यावत्‌ चन्द्रदिवाकरौ दीपस्तम्भ बन गया । नदी समान उनकी गतिमान धीर, गम्भीर, सुथरी कतृ त्व- सम्पन्न जीवनी प्रखण्ड प्रवाहित होकर जन-मन को सुजलां-सृफलां-वरदां बना रही है । दस विशालकाय महाग्रन्थ की संरचना, सम्पादना तथा भ्रायोजना विलक्षण शभ्रनूठे ढंग से की गई है। पण्डितजी के उत्तुग व्यक्तिमत्त्व से बातचीत शुरू होती है। श्री जवाहरलालजी ने स्व. मुख्तार सा. का जीवन चरित्रे इतने नपे तुमे शब्दों मे भंकित किया है जैसे गगनश्यापी सुरभि को शीशी में भर दिया हो । पण्डितजी के दुर्लभ छाया चित्र देखकर वायक लोह- चुम्बक वत्‌ भ्राकृष्ट होकर पन्‍ने उलटता-पलटत, है। महाग्रन्थ की रचना में जिनवाणी के चारों प्रनुयोगों के शंका




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