संवतप्रवर्तक - महाराजा विक्रम भाग - 2, 3 | Sanvatapravartak Maharaja Vikram Bhag - 2, 3

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ का रिव्रगज हुआ, शियगज-मास्वाड से विहार कर सिरोही, जावाल, जीरावछाजी, आदु, भिलडीआजी, चारुप, पाटण आदि तीां की यात्रा करते करते श्री शखेश्यरजी, होकर जि. स- २०११ की साल मेरा पृ. गुरुदेव की निश्राम अमदाबाद आना हुआ, साहित्य संघंधी अनेकानेक प्रवृत्तियों के कारण समय बितता गया और यह्‌ विक्रमचरित्र छपवाने का कायंमे विल्लव होता ही रदा. यकायक वि. म. २०१० की साल में शरीर मे “लो रद्र” कौ बिमारीने आक्रमण किया उससे ओऔपध उपचार करते रहे और इसी विच विक्रमचरित्र का अघुरा कार्य हाथमे हेने का निर्णय कर आगे का कार्य आरंभ किया और देवगुरुकी असीम कृपसे निर्बिध्नरूप से वह बायो आज पूर्ण हुआ ओर यह्‌ भथ सुचारु रूपमे छपवाकर परङाशक्ने वाचकः ॐ करफमल भे रसाखादे लिये सादर प्रस्तुत किया. न श्री जिनाज्ञा को शिरोमान्य एव पापभीर्‌ मनोवृत्ति रख कर इस पुप्क का स योजन कायं किया है, मूलग्रन्थ में कहां कहा >लेकों की पुमरुक्ति हेप वहां पर थोढ्ठा सा स क्षिप्त जरूर किया है, प्राकृत गाथा भी बहुत आती है, उसी का भावदशंक अनुवाद के लिये कहीं कहीं संस्कृत श्लोक भी पुनः अवतरित है, इसी कारण कोई जगद पर उसका अनुवद्‌ छोड दिया गया है, सभी प्रकार से मूल अन्य के साय पूणं लक्ष रखा गयां ६, देखा होते हुए भी छद॒मस्थ शुल्भ मतिश्नमसे या तो ঈহা-, अस्पाध्यास के कारण अनजान में किसी भी प्रकार के कुछ




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