पूर्वोदय | Purvodaya

Purvodaya by जैनेन्द्र कुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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$ २६ सर्वोदय की नोति नये समाज के निर्माण की आज चाह है। इस चाह में यह तो आ ही जाता है कि वह समाज बेहतर होगा | नया हो, इतना भर काफी नहीं है] यो तो कभी पुराने से ऐसा जी ऊब जाता है कि कुछ भी नये पर वह ललच उठता है, फिर चाहे पहले से वह.वदतर ही साबित हो | आंदोलनों में पड़नेवालों में ऐसे लोग हो सकते हैं, जिनके पास मौजूदा समाज से असन्तोप ज्यादा है, भावी समाज की कल्पना उतनी नहीं है | केवल असन्तोष की यह प्रेरणा विधायक नहीं होती। वह बनाती कम है, विगाड़ती हैं अधिक | “नया समाज” कहकर आज की हालत से श्रसन्तोप तो इम जतलाते ही हैं; लेकिन उस असन्तोप के साथ (आगामी समाज जो हम लाना चाहते हैं, उसका विचार भी होना जरूरी है । नहीं तो खाली असन्तोप में हम बने को ही गिरायेंगे, उसकी जगह कु नया वना नहीं पायेंगे | पुराना दा देने से नहीं, अभी से नया निर्माण -करने लगने से नया समाज बनेगा । समाज पदार्थ की तरह की चीज नहीं है । वह वेलान नदी, जानदार है | इसलिए पदार्थ को जिस गणित के विज्ञान के उसूलों से हम तोड़ते- জীভ हैं, वे ज्यो-के-त्यों समाज की रचना में काम नहीं देते | समाज की इकाई आदमी है और आदमी में मन है | इसलिए समाज की रचना का विज्ञान कुछ दूसरे तरीके का होगा |! वह मानसिकता से जुड़ा दोगा ओर उखकी नव-स्वना वादर के प्रहार से नहीं हो पायेगी 1 जेंसे लकड़ी




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