प्रमेयकमल मार्त्तण्ड भाग ३ | Prameykamal Maarttand Part 3

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Prameykamal Maarttand Part 3  by आयिका जिनमतीजी - Aayika Jinamatiji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३) है भर्थावु भ्रषयव मंशरूप प्रौर भ्वयबों अशवाला होता है इसप्रकार इनमें विरुद्ध धमंत्व है तथा प्रवयब पूर्ववर्त्ती झौर झवयनी उत्तरवर्त्ती होते हैं भ्रतः इनमें अत्यन्त भेद स्वीकार करना चाहिये। सामान्य भौर विशेष दोनों स्वतंत्र पदार्थ हैं इनका समवाय द्वारा द्रव्य में संबंध हो जाने से दोनो प्रभिन्न मालूम होते हैं। पदार्थ छ: है, द्रध्य, गुणा, कम, सामान्‍य, विशेष भौर समवाय । द्रव्य के नौ भेद हैं--प्रृथ्वी, जल, भ्रग्नि, वायु, मन, दिशा, भ्राकार, प्रात्मा और काल । गुण के चौबीस भेद हैं, कर्म पांच प्रकार का है, सामान्य दो भेद बाला, विशेष प्रनेक रूप एव समवाय सवंथा एक रूप होता है। इसप्रकार वेशेषिक के यहां पदार्थों की व्यवस्था है किन्तु यह सब प्रसिद्ध है समीचीन प्रमाण द्वारा बाधित होती है। सामान्य प्रौर विशेष को परस्पर से भिन्न मानना या उन भिन्न धर्मों का द्रब्य मे समवाय मानना दोनों ही गलत है। विभिन्न प्रतिभास होने मात्र से वस्तु मे भेद मानना युक्ति युक्त नहीं है, एक ही पभात्मा या अग्नि झ्रादि वस्तु प्रत्यक्ष भ्रौर भ्रनुमात दो प्रमाणो द्वारा प्रण होकर विभिन्न प्रतिभासित होती है किन्तु उनको भिन्न तो नही मानते ? भर्थात्‌ एक ही श्रगित प्रत्यक्ष से प्रतिभासित होती है श्र प्रनुमान से भी प्रतिभासित होती है फिर भी उसे एक ही मानते हैं, ठीक सप्रकार सामान्य भ्रौर विशेष धर्म विभिन्न रूपेन प्रतीत होते है फिर भी उन्हे एक पदार्थ निप्ठ ही स्वीकार करते हैं। प्रवयव झौर प्रवयवी को सर्वथा पृथक मानना भौ श्रयुक्तहै, क्या वस्त्र तत्रो से पृथक हं ? श्रवयव भ्रवयवौ धमे धर्मी इत्यादि मे कथित्‌ भेद प्रौर कथचित्‌ प्रभेद होता दै । पदां को कथंचित्‌ मेदाभेदरूप मानने से संकर, ठ+तिकर, सशय, विरोध, बयधिकरण्य, भ्रवस्था अभाव और श्रप्रतिपत्ति ये श्राठ दोष श्राते हैं ऐसा कहना भी प्ररिद्ध है, इन ग्राठ दोषो का स्वरूप एवं भेदाभेदात्मक या सामान्‍य विशेषात्मक वस्तु में इन दोषो का किस$ कार प्रभाव है इन सबका वर्णोन मूल में विशद- रीत्या हुआ है । परमाणु रूप नित्य द्रव्य विचार : यौग परमाणु को नित्य मानते है उनका कहना है कि पृथ्वी, जल, भ्रग्मि और वायु के परमाण सर्वेषा नित्य ही होते है, हां | इन पथ्वी आदि का विघटन होकर पुन. जो परमाणु रूप हुभ्रा है वह श्रनित्य है । यह यौग मान्यता भ्रयुक्त है स्कध का विघटन होकर परमाणु की निष्पत्ति होती है, परमाणु को सर्वथा नित्य मानने पर तो उनके द्वारा पृथ्वी प्रादि कायं को उत्पत्ति नही हो सकती क्योक्रि जो कूटस्थ नित्यहोता है परिवतंन श्रसंभव है, परिवर्नन होना ही प्रनित्य कहलाता है, जब परमाणु पृथ्वी भ्र।दि परिवर्सन कर सकते हैं तब उन्हे सवंधा नित्य किसप्रकार मान सकते हैं ? नही मान सकते । अवयवी स्वरूप विचार : प्रवयवो से श्रबयवौ [ शाखा, पत्ते क्रादि भ्रवयव हैं झौर वृक्ष प्रवयवीर्है, एषे ष्टी तन्तु भ्रवयवश्रौर वस्त्र झबयवी है ] सर्वधा पृथक है ऐसा वेशेषिक भ्रादि का कहना है किन्तु यह्‌ प्रतीति विरुद्ध है, वृक्ष, शरीर, वस्त्र, स्तंभ प्रादि कोई भी भ्रवयवी अपने प्रपने भ्रवमवों से भिन्न देश में प्रतीत नहीं होता ।




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