ऋग्वेदभाष्यं | Rigwedabhasayam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द ६ लाभेन कोन णिनत जनित वि ०) ११५५०४०१ ` ऋष्थेदः सं० ९१। अ० ११ । सू० ६२ ॥ ११३९ শালী सपो পপি এিি৭৯৭ ১৭ চীন বপন | लत्‌ (उपहरे ) उपहरन्ति कुथिलपानित येन तस्मिन्‌ व्यवहारे | ववाहे হিট জাপান কা পরী अन्न कृतो बहुलसिलते करणे अच ( यत्‌ ) उक्तम्‌ ( उषराः ) दिशः | उपगडइलति दिङ्ना० निघ० १।६( आपन्धत्‌ ) सवत ( मच्वशसः) | मधृनि मघुराप्यणीस्पुद्कानि यासु ताः ( नष्यः) सरितः ( चत्तखः } अतः सख्याकाः ।॥ ६ । | ऋन्वयः--हे मनष्या धष्नाभिरस्प दस्मस्येन्द्रस्य समाद्यध्य- क्षस्थ स्लनयित्नोर्बो पहर यत्ययक्चतमं चासनम दंसः कमास्ति तदु । विदित्वाऽऽचरणीय यहङान कमणा मध्वणंसो नदयश्चनस्र उपरा दिद्रोऽपिन्वत्‌ सेवते सिंचति स विद्यया सम्पर्‌ सेवताम्‌ ॥ ६॥ भावाथः-ज्रतरष्टेषाल०-- मनुष्यैः अ्रष्टलमानि कमणि | संसेन्थ यज्ञमनुष्ठाय राज्य पालापत्वा सर्वासु दिक्षु कीसिदष्टिः ' संप्रसारणीयात ॥ ६ ॥ पदाथेः-हे मनृष्यो तुम लोगों को उचित है कि ( अस्य ) इस ( दृस्पस्य) | दुःख नह करने वाले समाध्यत्ञ वा बिल्ञुतीके ( उपहर ) झटिलता यक्ता छय- বরায में ( यत्‌ ) ज्ञा ( प्रयन्ञतमम ) अत्यन्त पन्ने योग्य ( चारुतमम ) आते सन्दर ( दंसः ' विद्या वा सखों के भानने का हेतु ( के ) कमे ( अल्ति ) है ( तदु ) उसका जाने कर आआाचर ए करना वा जिन के इस प्रकार के कभे से ( म- ध्वणेसः ) मधर जल वाली ( नवः) नदी अर्‌ ( चख) चार्‌ ( उपरा: ) दिशा ( अपिन््रत्‌ ) सवन वा सचन करती ईं | उन दोनों को विद्या स झच्छे प्रकार सेवन करना चाहिये ॥ ६ ॥ ০ ~ ~ नमो मा-क ण क 9 ~= ০ সাগর ০০৯৯ - भावाथः--हस मत्र में श्तपाले०--मनष्यों को चाहिये कि अति उत्तम उत्तम कर्मों का सेदन यज्ञ का अनुष्ठान ओर राज्य का पालन करके सब दि. | शाओं थे कोचि की वर्षा करें ॥ ६ ॥ पुनः सं कीटका इत्यु ° ॥ फिर सभाध्यक्ष केसा हो इस बि० | সপ বলধা খাতার '




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