श्रवण भगवान महावीर का जन्म स्थान क्षत्रिय कुण्ड | Shrawan Bhagavan Mahavir Ka Janm Sthan Kshatriy Kund

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Shrawan Bhagavan Mahavir Ka Janm Sthan Kshatriy Kund  by पंडित हीरालाल जैन - Pandit Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(५1५) दो शब्द ১ तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा प्रवर्तित धर्म-दर्शन संकचित नहीं होता। लेकिन उसका अर्थ समझने और ग्रहण करने की हमारी सीमाएं अवश्य होती हैं। जैन धर्म में ६३ शलाका पुरुषों का वर्णन आता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नामक प्रत्येक काल खंड में ये 'शलाका पुरुष' जन्म लेकर समाज को धर्म और नीति की प्रेरणा देते हैं। इन शलाका पुरुषों मेः २४ तीर्थकरों का स्थोन सबसे ऊपर है! प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव पिता नाभि राजा तथा माता मरुदेवी के पत्र थे। अंतिम २४वंँती्थंकर महावीरथेजो आज से लगभग २५०० वर्षं पुवं हए । योँ देला जाण तो कान की अविच्छिन्न धारा में न तो ऋषभ देव प्रथम हैं और न महावीर अंतिम यह परपरा वस्तत' अनादि- अनन्त है। न जाने कितनी चौबीसियां हो चुकी है। और कितनी आगे होंने वाली है। तीर्थकर महावीर के जन्मन्थान को लकर विद्वानों मे मतभेद है। पडत हीगलाल जी दूगड़ जैन की यह लोजपूर्ण कृति लेखक की वर्षो की महन, अध्ययन ओरस्वोज का परिणाम है। १५ वषं पुवं प्रकाशित उनके वृहद्‌ प्रथ ' मध्य णशया ओर पजावब मे जैन धर्म का सर्वत्र स्वागत हआ था। देश-विदेश मे उसकी माग टै। जैन विद्या ममज्ञता के धनी पंडित जी की प्रत्येक कुति अपने विषय की महत्वप्‌र्ण सामग्री से सपन्‍न होती है। वे जो कछ लिलते है. उसम साधारण पाटक की धार्मिक निष्ठाण नो पष्ट होती ही है विद्वत समाज भी उनकी तकं शैली, खोजपूर्ण दष्टि और निष्पक्ष मान्यता ओ से लाभान्वित होता है। जैन समाज के इस वयोवद्ध मर्धन्य लेखक की रवस्थ दीर्घाय के लि? हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। श्री दिनकरभाई (गजगती) श्री दग्गडजी का ग्रथकं शाधरलाजयवंक तैयार करने में खर्च की पूर्ति के लिए रूपया २५००८ की राशि प्रदान करने की उदारता करके उनपर खर्चे के बोझ को हलका करके एक आदर्श काम किया है। इसलिये वे धन्यवाद के पात्र है। इस पुस्तक के प्रकाशन में आत्म-वल्लभ समुद्र पाट परपरश के वर्तमान पक्षधर आचार्य प्रवर, परमार क्षत्रियोद्धारक, गर्च्छाधर्षात, श्रीमद, बिजयेन्द्र दिन्‍न स्रीश्वर जी मे. सा. की प्रेरणा से रूपया दसहजार की राशि श्री आत्मवल्लभ शिक्षण निधि ने प्रदान की है तथा जो अन्य महानभाव और संस्थाए सहयोगी बनी है उनके प्रति अपना आभार व्यक्तं करना हमाग परम कर्तव्य है। आचार्यश्री जी के चरणो मे कोटिशः बन्दन। अन्त में, पुस्तकं के मुद्रण ओर प्रकाशन पें कोड्‌ त्रुटि रह गड हो तो सहृदय पाठक उसके लिए क्षमा करेगे, ऐसी आशा है। दिल्ली ~ वीरे कमार जैन पोध पूर्णिमा, २१ जनवरी १९८९




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