गगनान्चल | Gaganaanchal

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Book Image : गगनान्चल  - Gaganaanchal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सब मिलकर व्यवस्था को बदलें 15 को पगार देते हैं। बैसे ही पारिश्रमिक के तौर पर लेखक भी बोनस ले लेता है। यही पुरस्कार है। इधर रायल्टी कम मिली होगी तब पुरस्कार लेते हैं। छोटे-बड़े पुरस्कार हों तो उनकी बात अलग है। मेरा कहना यह है कि भारत में ऐसे विद्वानों की सभा होनी चाहिए जिसका बहुत बड़ा सम्मान हो, जिसका कि वह प्रमाण पत्र दे दें कि यह बहुत बड़े लेखक हैं। इससे उसे प्रसनन होना चाहिए । ये पुरस्कारों की धनराशि जितनी बड़ी होती है तो लोग समझते हैं कि जिसको मिला वह उतना ही बड़ा लेखक है। यह बहुत गलत तरीका है। ओर यह खास तौर पर हिंदी प्रदेश में है। बिहार अलग पुरस्कार देता है। मध्यप्रदेश राज्य अलग देता है। उत्तरप्रदेश का राज्य अलग पुरस्कार देता है। ये सब हिंदी प्रदेश वाले राज्य हैं । मेरा तो कहना है कि सब हिंदी प्रदेश वाले पैसा इकट्ठा करो और साक्षरता प्रसार मे खर्च करो । हमारे यहां निरक्षरता सबसे ज्यादा है । हमें शर्म आनी चाहिए । ओर लाखों -करोडों रुपया तुम लेखकों मेँ बांरते हो अगर जनता को शिक्षित करो तो क्या लेखक इससे नाराज होंगे? उनके पढ़ने वाले पढ़ेंगे। किताबें उनकी ज्यादा बिर्केगी । इससे कुल मिला कर जो आमदनी होगी । उसे इस पर खर्च क्यो नहीं करते? तो जनता के बरे में वे सोचते नहीं । हर बड़ा पूंजीपति समझता है-उसने पुरस्कार चलाया तो मेरा नाम पीछे रह गया, मुझे भी चलाना चाहिए। अपने नाम के लिए करते हैं। एक तरह से जनता की आंखों में धूल-झोंकने के लिए करते हैं कि हम साहित्य के लिए बहुत सही काम कर रहे हैं। किताब के पाठक बहुत सारे हैं लेकिन हिंदी में जितनी महंगी किताबें छपती हैं। उतनी बांग्ला में, मराठी में, तमिल में नहीं छपती है। जहां हिंदी के बहुत सारे शत्रु हैं। उसमें एक प्रकाशक भी है। वो पुराने बनिए की तरह से तुरंत बहुत सारी रकम समेट लेना चाहता है ओर पाठक का भरोसा कम करके पुस्तकालयों में महंगी किताबें घूस देकर वहां रखना चाहता है । इस तरह से वह वहां मुनाफा कमाता है । इसलिए बहुत से प्रकाशक खुल्लम-खुल्ला कह भी देते हैं कि आप तो कहते हैं कि पुस्तकें सस्ती छापो, हमको घूस देना पड़ता है। उसके लिए हम क्या करे? अब जितनी रायल्टी यह लेखक को देते हैँ उससे ज्यादा यह कमीशन ये बुक सेलर को देते हैँ । अगर लेखक को पंद्रह परसेंट कमीशन देते हैँ तो बुक सेलर को ये चालीस परसेट कमीशन देते है । तो बुक सेलर ओर प्रकाशक मिलकर पाठक को लूटते हैँ ओर लेखक को लूटते है । इसलिए जब तक सहकारिता उद्योग की बात नहीं होगी तब तक इस सहयोग से प्रकाशन संस्थाएं नहीं बनाई जा्पेगी तब तक यह स्थिति नहीं बदल सकती । कई प्रकाशक ऐसे भी हैं जिन्होंने प्रेमचंद समग्र प्रकाशित किए हैं जिनकी कीमत 9 हजार रुपए से कहीं ज्यादा है.। ये प्रकाशक पुस्तकालयों का भरोसा करते हैं। ये समझते कि वहां ये पुस्तकें खप जायेंगी। प्रेमचंद पढ़े तो जाते ही हैं। इसलिए जनता तक प्रेमचंद पहुंचे या ना पहुंचे पुस्तकालयों में पहुंच जाना चाहिए और वहां से हमें एकमुश्त मुनाफा




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