सद्विचार मुक्तावली | Sudvichar Muktavali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फर्मधीर | | | ये कंपा सकती कभी जिसके कलम को नहीं। भूलकर भा वह नहां नाकाग रहता है कहाँ।॥ ४॥ चिलचिढती धूप को जो चांदनी देव बना | काम पहने पर करें जो शेर का भी सामना || हँसते इंसते जो चबा लेत लोह फे चना। “है कठित कुछ भी नहीं” जिनके है जी में यद्द ठना || कोप कितने ह चरु पर वे कभी थक्ते नहीं । फोनसी है गांठ जिसको खोल वे सकते नहीं || ५॥ करी को वे ৭লা दते दै सोन की उन्ती । रेग- का करते दिखा दंते हैं थे सुन्दर खली ॥ ' वे बबूलों में छगा देते दे चुपे को कछी | काककों भी वे ভিড হন ই कोकिल+काकली ॥ हैं खिला दुते अनूठे वे कमल | हैं उकठे काठ में भी फूल फल ॥ ६ ॥ कामको आरंभ करके यों नहीं जो चोड़ते । सामना करके नहीं जो मूलकर मुंह मोंइते ॥ | गगन के फू वातो से दथा नदीं तोडते । 4 (८१ [/ 01 5 85 संपदा मनसे करोड़ों की नहीं जो जोडते ॥ भ बन्‌ गया द्ीरा उन्हीं क॑ द्वाथ स हैं कारबन | कांच को करके दिखा दते हूं वे उज्चरू रतन ॥ ७॥ क भ पवेत] का कारक्र सडक घना दतदहव्‌।




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