शिक्षावली | Shikshavali

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Shikshavali by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १५४ ] प्रसङ्ग बोलना भष्छाद्े) यदि तुम्हारे में शक्षि होगो तो हर विषय पर न्युनाधिक क सकोरी ; परन्तु पेखा न होते, अपनी वात कहने से दूसरे का सनना हो ठोक है । मणठली में अपनी पिद्वत्ता प्रकाश न करनी ! किसो घसुद समय के अतिरिक्त अपनो विद्वत्ता का प्रकाश करना भ्रयोम्य है। उस्र विद्वत्ता को विद्दानों के लिये रख छोडो; ओर उन में सो खबं प्रकाश करने की अपेक्षा पूछे जाने पर प्रकट करना भच्छा होता है। इस से यह सिद् होगा कि तुम अति नस्तर हो, भोर मुझ चज्ान से भी अधिक विद्या तुम्हारे पास होने की प्रतिष्ठा चगो। अपने साथियों से बढ कर विद्वान व वुद्धिसान छोगा कभो प्रकट थ करो। जो मनुष्य अपनो विद्वत्ता प्रकट करने का टढोंग करता है उस से तठत्कार प्रश्न किये जाते, कदापि उस वज्न॒ पोक्त खल गई तो हसी और तिस्कार क्ञोगा, भौर यदि टोकरा तो प्रभिमानों गिना जावैगा 1 उच्चौ योग्यता का प्रकाश खय हो जाता है ; परन्हु गुण को किसो टोग से प्रकाशित करने में उस को दर भन्य२ कारणों से घटती शो उस से भो अधिक घट जातो है। विरुद्ध भाषण सम्यत्ता ओर शृदुचाणी से करना । जब तुम किसी मनुष्य के मत तथा भाषण से विरुद्ध करना चाहो तो अपने बोचने को ढव, सुखसुद्रा, तथा शब्द और रूर बिना ठोंग के खाभाविदा, छठ और शान्‍्त र्ठने चाद्धिये । जच विकर वोखना षोत्व “सं मभृदतान होड तो; ^ सुफे निखय नदीः परन्तु জাল पडता है ” ; “ सें घारता हू” इत्यादि कोसल वाक्यों से प्रारन्मन करना । बाद के घन्त में सदा ऐसे सारगर्सित , मधुर व प्रिय भब्दी दा उपयोग करना चाहिये, जिन से यह स्पष्ट हो जावे किन तो तुम इस से अप्रसन्न इण, और न तुम्हारा सम्भाषण योता लोगों को अप्रसन्न करने के लिये हे; दयोनमि दीघं कास तक बाद




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