तत्त्वमीमांसा | Tattvmimansa

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Tattvmimansa by वीरेन्द्रनाथ घोष - Veerendranath Ghosh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तत्त्वमोमांसक की कठिनिददयाँ ९ कि तर्कशास्त्र और नीतिशास्त्र की तरह वह भी विशेष तथ्यों और घटनाओं-विषयक हमारे ज्ञान-मडार की कुछ भी वृद्धि किये विना केवल उन तरीको की ही चर्चा करती है जिनका उपयोग उस हारूत में तथ्यों और घटनाओ के अर्थ-निर्णय हेतु हमें करना आवश्यक होता है, जब कि हम संगत चिचार करना चाहे | वह बह नही जानना चाहती कि किसी विशिष्ट प्रक्रिया-कुलक की कित तफसीलो को सत्य समझा जाय 1 अपितु वह्‌ केवल यह जानना चाहती है कि वे कौन-सी सामान्य शर्तें है जिनका अनुरूपण सव प्रकार के स॒त्य के निवरिण के लिए अपेक्ष्य है, (ठोक उसी तरह जिस तरह तकंशास्त्र किसी विशिष्ट वैज्ञानिक सिद्धान्त सम्बन्धी साक्ष्य की अहँत्ता पर वहस नही करता वल्कि उन सामान्य परिस्थितियों पर ही विचार करता है जिनके अनुरूप उस साक्ष्य का होना उसके निष्कर्ष की सिद्धि के किए आवश्यक है ।) इसी कारण मरस्तू ने तत्वमीमासा को -यथाशच्य अस्तित्व-विषयक विज्ञान” ठीक ही कहा है । (उदाहरणत. गणित तत्त्वमीमासा का प्रतिलोगी विज्ञान है क्योकि गणित अस्तित्व का उसी सीमा तक अध्ययन करता है जहाँ तक परिमाणात्मक या सख्यात्मक हो ।) इसके अतिरिक्त तत्त्वमीमास्रा को वास्तविकता अथवा सत्य सम्बन्धी निरा- पार पूर्े-्रत्ययनो कौ खोज करने मौर उनसे वच निकलने के एक प्रयत्न के रूप में विचि- कित्सु जथवा सशयवादी ज्ञान भी एक माने मे कहा जा सकता हैयज्वपि अपनी कार्ये-पद्धति और नैतिक प्रयोजन दोनोही के कारणवह सामान्य विचिकित्सासे बहुत भिन्न है। सामान्य विचिकित्सा की विचार-सरणि तथा कार्ये-पद्धति पूर्वाग्रहू अथवा कट्टरता पर आधारित होती है अर्थात्‌ वह पहले ही से, बिना किसी जाँच-पड़ताल के यह मान कर चलती है कि ऐसे दोनो ही भ्रत्ययत जो परस्पर-विरोवी है अथवा ऐसे दोनों ही विचारात्मक सिद्धान्त, जो एक दूसरे से भिन्न है, अवश्य ही असत्य होने चाहिए । चूँकि इंस प्रकार की विभिन्नताएँ मथवा विषमता ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में पायी जा सकती है इसलिए प्रत्येक विचिकित्सावादी अथवा संद्षयवादी कट्टरतापूर्वक पहले ही से यह मान छता हैँ कि परस्पर-विरोधिनी इन प्रतीतियों के पीछे जाकर सग्रत वास्तविकता या सत्य तक पहुँच सकने का कोई चारा ही नही है। इसके प्रतिकूछ तत्वमीमांसक के लिए यह मानकर चलना ही कि अनुभवगम्य पहेलियाँ अनवूझ होती तथा हमारै ज्ञान-विषयक्‌ वैवम्य नसमाधेय हुआ करते है स्वयं उन पूर्वाग्रहो में से अन्यतम होगा जिनकी जाँच करना और जिन्हें कसौटी पर कसना उसका अपना अधीतव्य है। वह आलोचनात्मक বি से उस রি विचार किए वगैर यह बताने से इनकार कर देता हें कि परस्पर-विरोधी किन्दी दो विचारारागो भे से कौन सही है तथा यह भी कि अगर दोनो ही को गछूत मान शिया जाय, तो उन दोनो में से कौन सत्य के अधिक निकट है। भरे ही वह न माने कि अपनी मानवीय शक्तियों हारा हम सत्य की प्राप्ति कर सकते और उसे जान सकते




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