योगवसिष्टान्तर्गत वैराग्य | Yogvashishtanthgrat Varagya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कथारंभ-वैराग्यप्रकरण 1 (९) पति जो विष्णु संगवाच्‌ः सो वैङुंठते उतरके अह्मषुरीमिं आये, तव बह्लासदहित सवे खया उसके खडीहुई अरु पूजन किया: अरू सनत्कुमारने पूजन किया नही. तिसकों देख- कर विष्णु सगवान्‌ बोलत भया-हे सेनत्कुमार ! तुझके निष्कामताका अभिमान है; तांते तू काम करके अवतार घावेगा, अरू स्वामिकार्तिक तेरा नाम होवेगा- जब विष्णु भगवाचने ऐसा कहा, तब समनत्कुमार बोले हे विष्णु ! सर्वेक्षताका अभिमान तुझको है- सो तेरी स्वेज्षता कोई कारु निदत्त दोवेभी? अकू अज्ञानी रेवेगा- हे राजन्‌! एक तो यह शाप हुआ और भी छन. एक्‌ कारसें अखकी खी जत रदी थी; तिसके वियोग कर बह ऋषि तपायमान इ अथा, तिस्को देखके विष्णुजी से तब भ्रगुब्राह्णने शाप दिया-हे विष्णु ! উই লই देखि तैने हाँसी करी है, सो मेरी नाई तू भी ख्लीके वियोग कर आतुर होवेगा- एक्‌ दिन देवशमौ बाह्मणने नरसिंह यनवाच्को शाप दिया था, सो स॒न-एक दिन नरसिंह भगवान्‌ गगाके तीरप्र गयेये, तहां देवशमौ जाह्मणकी घरी थी, तिसको देखके नरसिंहदजी भयानक रूप दिखायके ईसे तिके देखके, ऋषिकी छुमाईने भय पाय प्राण छोडदिये. तब देवशमौने शाप दिया किः तुमने भरी खीका वियोग क्रियाः ताते तुमभी सखीका. वियोग पाग. ५




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