उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म का विकास | Uttar Pardesh Me Bauddh Dharma Ka Vikash
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
374
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)उत्तर प्रदेश के प्राचीन राज्य ७
परतु बुद्ध ने जेतवन विहार के निकट उनका रहना स्वीकार नही किया হাসা
पहले तो बुद्ध की इच्छा का पालन करने के लिए तैयार नही हुआ, परतु भंत में उतके
स्वय हस्तक्षेप करने पर उसने उक्त विश्रामगृह अन्यत्र बनवाना स्वीकार कर लिया
और उस स्थान पर बौद्ध भिक्षुणियो के निवास के लिए एक विहार बनवाने का निश्चय
किया। इन्हीं भिक्षुणियों में एक सुमना भी थी, जो राजा पसेनदि की वहन थी ।
एक और विश्वामशाला थी जिसका नाम सल्लिकाराम था और जिसका निर्माण
सभवत पसेनदि की पट्टमहिपी मल्लिका की इच्छा से हुआ था। यह आराम परि-
क्षाजकों (परिव्वाजका) का एक केंद्र हो गया, जहाँ समय-समय पर वृद्ध गौर् उनके
शिप्यगण आया करते थे। इसका वर्णन 'समयप्पवादुक-तिप्डुकाचिर-एकसालूक
जर्थात् तिडुक वृक्षो से धिरा हुमा एकशाखक (जिसमे एक ही गाल हौ) कटकर
किया गया है। यह विभिन्न सिद्धातवाके आचार्यों के पारस्परिक विचार-विमशे एव
शास्त्रार्थ के लिए वनवाया गया था ।*
साकेत--कोसल का यह दूसरा वडा तगर था। इस स्थान का महत्त्व वढा विशाखा
के पिता सेदिठ घनजय के निवात्त के कारण, जो मूत मगव का निवासी वा परतु पसेनदि
के अनुरोध पर यही आकर वस गया था। साकेत सावत्यी ते सात योजन पर था।
उसके भीतर अजनवन नामक एक मृगवन था, जो पसेनदि के मृगया सेलने का स्यान
-या। कनिघम! का अनुमान था विः सक्रेत मौर अयोव्या एक ही ह, परतु यत इन
दोनो नगरो का वर्णेन निकायो में हुजा ई, अतएव ये जवदय ही दो भिन्न स्थान रहे
होगे। साकेत की पहचान उन्नाव जिले में सई नदी के तठ पर स्थित सुजानकोट के
व्वसावशेप से की गई है। यहाँ कुछ जवीद्ध भी रहा करते थे। इसी स्थान पर सुजाता
चुद्ध के उपदेशों को श्रवण कर जहंतृ हो गई थी । यहाँ कुछ सन््यानी रहा करते थे,
जिनमें गणपति भी था। साकेत और सावत्वी के बीच तोरणवत्वु था, जहाँ राजा पसे-
नदि को खेमा थेरी से भेट हुई थी।
जयोज्ता-- (अयोध्या) यट नगर गगा-तट पर अवस्वित था। बुद्ध इस स्थान
पर पबारे थे और वहां उन्होने तीन व्यात्यान दिए ये, जिनमे से एक सर्वास्तिवाद
१. विनय० २, पृ० १६९।
२ थेरीगाया, पु०२२; संपुत्त० १, पृ० ९७, अगुत्तर० ३, पु० ३२।
३- ज्याग्रफी आाँब ऐंश्यट इडिया, पृ० ४०५ । ४
४. यरोगाया, १४५-१५० 1
५« सपुत्त निकाय, ३, पु० १४०, ४, पु० १७९१
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