श्री स्वामी रामतीर्थ | Shri Swami Ramtirth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छा नित्य-जीवन का विधान. ४ : मुसलमान ओर ईसोई जव इस देवी-विधान वा परमात्मा को 'ग़य्यूर' (ईपॉलु, ००००६, )४5) और क़हार ( ऋर वा कराल,1.०००॥)।०, ;५४) कहते हैं,तो कोई गलती नहीं करते । निःसन्देह यह नियम किसी व्याक्ति विशषका पक्त करने वाला ( वा लिहाज़ करने वाला ) नहीं है। किसी मनुष्य को संसार की किसी वस्तु से चित्त लगाने दो श्रौर चिश्रल रूपी भरति का श्रनिवा्यैतः कध उख पर श्रवश्य दी धरित दोगा । यदि लोग इस सत्य के ग्रहण करने मे सुस्त हैं, इसालिये कि उनमें - ठीक २अवलेकन की शाक्ति थोड़ी है, तो वे प्रायः अपने व्यक्षित्व-सम्बन्धी बातों में उसी घटना में कारण জী উতলা » पसन्द नहीं करेत,वल्कि अपने दोषोके लिये दूसरा को दोष फट पट देने लग जाते हैं,ओर एक निष्पक्ष साक्षी की भाति अपनी कोपवृत्तियों ओर भावनाओं तथा उनसे उत्पन्न होने चाले परिणामों पर बिचार पूर्वक दृष्टि डालना जानते ही नहीं। घोखा हमें अवश्य मिलेगा जब हम इन वाद्य रूपौ पर विश्वासं करेंगे, या जब हम श्रपेन अन्तः हदय मँ इन मिथ्या पदार्थो आर प्याक्तियोंको वह स्थान देंगे जो केवल एक मात्र सत्यके लिये डपयेगी है, या जब ईश्वर के स्थान पर दम मूत्तियां ( बुतो, 1008 ) को अपने हृद्य-सिंहासन पर विठलायेंगे । श्रध्यारोप श्रपवाद्‌- न्याय (110111५ ०1 8876श79९४ ও 01:7:6710) , तो अनीश्वरीय श्रसत्यता के नियम को बिना किसी श्रपे्ता के स्थिर करता ই। कितनी वार ऐसा नहीं होता कि हम पूर्ण भद्र पुरुषों के वाक्या ( इक्ारं ) पर चित्त लगाने से ओर उनमें इंश्वर से भी बढ़कर विश्वास- रखने ले उनको उनके चाक्षयो के खमान भी भद्र नहीं वने रहने देते ? कितनी वार हम देवी-विधान




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