पाप का प्रतिकार | Pap Ka Pratikar
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
296
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१८ पाप का प्रतिकार
कमो नहं रहती है, यह अनुभव की बात है; परंतु में तो पहले ही से
निव्यसनी था। मेरा रहन-सहन भले प्रकार का था, इसलिये लोगों ने
मुक अरसिक! ठहराकर मेरे पीछे लगना छोड़ दिया था।
केवल अमीरुद्दीन का ओर मेरा स्नेह चामत्कारिक रीति से बढ़ता
ही गया । अमीरुद्दीन भी सेरी ही तरइ निव्यसनी था । उसके भी सा-
बाप न थे, ओर-न मेरे ही। ऐसे ही अनेकों कारणों से उसका और
मेरा पारस्परिक स्नेहू बढ़ता ही गया। हस दोनो में अंतर केवक्ष इतना
ही था कि वह दरिद्र था, ओर में श्रीमान; परंतु मेरे साथ उसका
स्नेह इस दृष्टि से न था कि में धनी हूं, वरन् वह सुझूसे सच्चे
मिन्न की नाई स्नेह करता था। मुझे धनी समझकर वह कभी सुम्धसे
सुरव्वत न करता था, . आरं उसका यही बतोव मुके विशेष भला
लग़ता था। अमीरुद्दीन अपन धंधे से कमाई भी अच्छी कर लेता
था । मुझे इसके लिये किसी दिन भी खेद नहीं हुआ कि मेरे कोई सगे
संबंधी नहीं हैं। कारण, अमीरुद्दीन ने यह सभी अभाव दूर कर रक्खे
थे। अमीरुद्दीन मेरे साथ ही रहता था, इसलिये सुख-चेन सें समय
व्यत्तीत होता था | यदि कभी में अकेला ही रह जाता, तो भी मेरा जी
न घबराता था; क्योकि व्यवहार और सटष्टि-सोंदर्य, ये दोनो ही मुझे
~शलस्य भं समय न जिताने देते थे। कदाचित् किसी समय जी न
लगता, तो थम्जुना-किनारे चला जाता और घंटों वहीं बड़ा हुआ सृष्टि का
सोंदय देखा करता; परंतु किसी के साथ ध्यर्थ की गप-शप लड़ाने और
समय को ््यथ गेँवाने का प्रयत्न न करता था। ऐसे एकांत बतीव के
कारण मेरी प्रत्यक्ष जान-पहचान बहुत ही थोढ़े लोगों से है। सारा
दिल्ली-शद्दर मेरे कुटब को पद्चचानता था; किंतु अब तो में समझता हूँ,
दिल्ली-शहर में भुझे पहचाननेवाले दख ही पाँच मलुष्य निकलेंगे ।
चोनीस-पच्चीस वषं की पूर्ण युवावस्था, उत्कृष्ट सोंदर्य, उत्तम
शरीर-संपत्ति ओर भरपूर द्ृष्य--ये सभी मुझमें थे, इसी कारण बड़े-
बड़े सरदारों की लड़कियाँ मेरे साथ विवाह करने का उद्योग किया
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