ज्ञानदीक्षा | Gyandiksha

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Gyandiksha by भानुकुमार जैन - bhanukumar jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शानदीक्षा बरढनो और भाइथी, > आप जो मुझे यहाँ बुलाया है वह मे, ऐसा जान पडता है, भानों पश्चिम भारतने श्ीतिपूर्चक पूवेन्भारतकों निमन्वित किया है| में भी पून-मारतकी अ्रशुत्तिकों पश्चिम भारतके इस ৪৭০৬ সা খুন পণ करके लावा हूँ | दमारे इस देशयें देवताके यूशमिपेकका। यह नियम है कि ऊफ पेवताके समरुत धाम ओर चेनोसे तीर्यादक लेआ।न। पड़ता है| एक तीथेक জর্জ अभिषेक अधूर्स रहजाता है, इसीलिए तीर्थयात्री नाना जोचोसे तीथीव्क लाकर देवतारका ए७मिप्रेक करते हैं। अन्तर সং নাহ নিই গুহ শিখন तीथैका जल सअ्रह करनेकी योग्यत। লী नहीं होती | श्रद्धाका पिन तीर्थोदकं चदन कर धकंना ओर मी कठिन काये है। मैं अपनेको उसके योग्य नदी समझता | फिरमी এ लोगोके स्नेहके जोरसे धुफे यह दुःसाध्य मार अहुशु करना पड़। है | परन्छ यद्यपि आपने भार धुके दिया है, फिसमी छुफे, नास- सायक। ही दायित्व स्वीक।९ करनी है | क्‍योंकि सब कुछ तो आ।५ ही रमे । मं तो निभि-प- य्‌ हू | देवताच रथ खींननेकेशिए काठक। घोड़ा सभाथ। जरूर जाता है, यच्यपि सींनते उसे भक्त योग ही हैं। में मी इस अचुष्ठान-रूपी रथक। काठ5क। घोड़ा हूँ | खीतन। अ (पने ही ५३५५ | आपके विद्यापीठका পাকা ই नम्बर हिन्दी-विद्यापी०?। अर्थात्‌ हिन्दी भाष। ओर हिन्दी चरकति ही आपका प्रधान लच्थ है। हमारे पेशमें विद्या ओर सस्कृतिकी अधिष्ठानी देवी सरस्वती हैं।४मे यह देखकर संतोष ६




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