नाणपंचमीकहाओ | Nanpanchami Kahao

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Nanpanchami Kahao by अमृतलाल सवचंद गोपणी - Amritlal Savachand Gopani

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अमृतलाल सवचंद गोपणी - Amritlal Savachand Gopani

Add Infomation AboutAmritlal Savachand Gopani

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
बाबू बहादुर सिंहजी - स्मरणाञ्रलि 8७. तिघीजीए मारी ब्रेरणाथी, “सिधी जेस शानपीठ' नी स्थापना साथे, जन साहिल्यना उत्तमोत्तम भन्यरल्रोने . आधुनिक शाज्रीय पद्धतिये सुन्दर रीते संशोधित-संपादित करी-करावी प्रकट करवा माटे अने तेम करी जन साहिखयनी चावे. . जनिक प्रतिष्ठा स्थापित करवा मादे, भा खिघी जेन अन्थमात्ठा प्रकट करवॉनी विशिष्ट योजनानो पण खीकार करथो अने ए माटे आंवश्यक अने अपेक्षित अर्थव्यय करंवानो उदार उत्साह प्रदर्शित क्यों प्रारंभमां, शान्तिनिकेतनने लक्षीने एक ३ वर्धनो कायेक्रम घटी काठवामां आव्यो अने ते प्रमाणे दां कामन प्रारभ करवामां भाग्यो, परंतु ए ३ वर्धना अनुभवना अते शान्तिनिकेतन मने मारा पोताना काये अने खास्थ्यनी धिये चराचर अनुकूछ न लागवाथी, अनिच्छाए मारे ए स्थान छोडघु पच्च अने अमदावादमां, गुजरात पिया पी ठना सामिप्यमां अनेकान्तविदार' वनावी द्यां आ कायनी प्रवृत्ति चाह राखी, आ अन्थमकामां पक थरएखां अन्थोनी उत्तम परसा, प्रसिद्धि अने भ्रतिष्ठा थएली जोईने प्िंघीजीनो उत्साह खूब वध्यो अने तेमणे ए अंगे जेटलो खर्चे थाय तेटलो खर्च करवानी अने जेम बने तेम वधारे संख्यामां भनन्‍्थों प्रकट थएला जोवानी पोतानी उदार मनोढेत्ति मारी आगठ वारंवार प्रकट करी. हं पण त्ेमना एवा अपूर्वं उस्सादथी प्रराई यथाशक्ति आ कार्येन वधार ने वधारे वेग भापवा मारे प्रयत्नान्‌ रहेतो, खन १९५३८ ना जुराईमां, मारा पंरस सुहृद श्रीभुत -कन्देयाजाल मागेकलाख युश्षीनो - जेओ ते वखते सुंयईनी कॉम्रेस गवर्न्मेंटना गृहमंत्रीना उच्च पद पर अधिष्टित इता-अकसात्‌ एक पत्र मने स्यो जेमां एमणे सूचन्युं दवं के “सेठ भुगालाल मोएनकाए बै लाख रुपियानी एक उदार रकम एमने सुप्रत करी छे जेनो उपयोग भारतीय विद्याओना कोई विकासात्मक कार्य माठे करवानो छे अने ते माठे विचार-विनिमय करवा तेम ज तदुपयोगी योजना घडी काढवा अंगे मारी जरर दोवाथी मारे तरत भंवर आवद बिगर . तदनुसार हुं तरत सुंवई आव्यो अने अमे वनने य साथे वेसी ए योज- नानी रुपरेखा तेयार करी; अने ते अनुसार, संबत्‌ १९९५ नी कार्तिक सदी पूर्णिमाना दिवसे श्री संशीजीना निवासस्थामे आरतीय विद्याभवन? नी, एक म्होटा समारंभ साथे स्थापना करवामां आवी, . भवनना विकास माटे श्रीमुंशीनीनो अथाग उद्योग; अखंड उत्साह अने उदार आत्मभोग जोष, मने पण एमना कायेमां यथायोग्य सहकार आपवानी पूणं उत्कंठा थ অন हुं तेनी आंतरिक व्यवस्थामां प्रमुखपणे भाग ठेवा लाग्यो. भवननी विविध प्रवृत्तिओमां साहित्य प्रकाशन संबंधी जे एक विशिष्ट प्रशत्ति खीकारवामां आवी <ती ते मारी आ ग्रंथमाठाना कार्य- साये एक प्रकारे परस्पर सहायक खरूपनी ज प्रवृत्ति होवाथी, मने ए पूर्व-अंगीकृत कार्यमां बाधक न थतां उल्टी साधक ज जणाईं अने तेथी में एमां यथाशक्ति पोतानी विशिष्ट सेवा आपवानो निर्णय कया. सिंधीजीने ए चधी वस्तुर्थितिनी जाण करवामां आवतां तेओ पण सचनना कार्यमां रस धरावता थया अने एना संस्थापक-सदस्य बनी एना कायं मारे पोतानी पूर्ण सहानुभूति प्रकट करी जेम मे उपर जणान्युं छे तेम, ग्रथमाक्ानां विकास माटे सिंघीजीनों उत्साह अस्त प्रशंसनीय हतो अने तेथी हूं पंण मारा खास्थ्य विगेरेनी करी दरफार राख्या वगर, ए कार्यनी अग॒ति माटे सतत भ्रयन्न कयौ करतो दतो. परंतु भन्थ- साठानी व्यवस्थानो सवे भार, मारा एकलाना पंड उपर ज आश्रित थईने रहेलो हदोवाथी, मारं शरीर च्यरे ए व्यवस्था करतुं अटकी जाय, दारे एनी शी स्थिति थाय तेनो विचार पण मने वारंवार थयां करतो दतो, बीजी वाक्तु सिंघीगीनी पण उत्तरावस्था होई तेओ वारंवार अखस्थ थवा जागर्या दता अने तेओ पण जीवननी अस्थिरतानो आभास अतुभववा लाग्या दता, एटले प्रन्थमा्ाना भावी निषे कोई स्थिर अने खुनिश्ित योजना घडी काटचानी करपना हं क्या करतो हतो भवननी स्थापना थ्या पदी ३-४ वेर्पभां ज एनां काय॑नी विद्वानोमां सारी पेठे प्रसिद्धि ने प्रतिष्ठा जामबा छागी हती अने নিলি बिषयना अध्ययन-अध्यापन अने साियना संरोधन~संपादननुं कायं सारी पेठे आगक वधवा लागु তত, ए जोई सुहृददरर भ्रीमुंशीजीनी खास आकांक्षा थई के सिंघी जन ग्रन्थमाछानी कायेन्यचस्थानो संव॑ध पण जो भवन साये जोरी देवामां आवबे तो तेथी परस्पर वंनेना कार्यमां सुंदर अभिदृद्धि थवा उपरांत अन्धमाढछाने स्थायी स्थान मछझे अने भवनने विशिष्ठ प्रतिष्ठानी प्राप्ति थशे; अने ए रीते भवनमां जैन शाज्ोना अध्ययननु अने जेन साहिलना प्रकाशननुं एक भ्रद्वितीय केन्द्र चनी रदेशे, श्रीसुश्षीजीनी ए छभाकांक्षा, अन्धमाको विपेनी मारी भावी चिंतानी योग्य निवारक छागी अने तेथी हुं ते पिपेनी योजनानो विचार करवा लाग्यो, यथावसर सिंघीजीने मे श्री मुंशीजीनी आकांक्षा झरने मारी योजना सूचित झरी, वेओ भा. वि. भ, ना स्थापक-सदस्य हृता ज जने ततदुपरान्त भ्रीमृशीनीना खास ज़ेद्धात्पद मित्र पथ्र दता; तेथी तेगने पण ए योजना चधावी खेवा लायक छागी, पण्डितप्रवर भ्रीसुखछालजी जेभो आ अन्यमाछाना भारंभवी ज भतरेग हित चिंतक जने सक्रिय सहायक रह्या छे वेमनी साथे पण ए योजना उंद॑वे में उचित परामर्श कये अने दवत्‌ २००३ ना पैश्वारा सुदमां (मे सन १९४३ ) सिंघीनी कार्यप्रदंगे सुंबई वेच त्यारे, परस्पर निर्णंत विचार विनिमय करी, आ धन्धमाठानी प्रकाशनसंबंधी स्व व्यवस्था भवनने सखाधीने करवाना आवा, [सघीनाए, ए उपरान्त, तं अवसरे मारी भरेरपाथी अवने




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now