पद्मनन्दि पञ्चविंशति | Padmanandi Panchvinshati
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
310
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)विषय-सूची
शोक च्छोक
জী ঈলব उच परमज्योतिकी यात मी सुनता . यतिभावनाष्टक १-५९, पर, १२५
ष मोहकमैजनित विकल्पोंसे रहित मुनि जयबंत हो ও
चाहिये कं मुनि क्या विचार करते हैं २०४
जो करमते प्रथक् एक कषात्माको जानता है वह छरती कोन कहा जाता है ५
उसके स्वरूपको पा छेता हे 9 ऋतुविरोषङ़े अनुसार कष्ट सहनेवाङे शान्त
परका सम्बन्ध यन्धका कारण है २५ मुनियोके मासे जानेकी अभिखापा ६
कके भभावसें भाव्मा ছুজা श्रान्त दो जाता दे उत्कृष्ट समाधिका खरूप व उसके घारक ७
जैसा वायुके क्षमावसें समुद्र २६ अन्तस्तत्त्वकरे ज्ञाता वे सुनि हमारे लिये शान्तिके
शाप्म-परका विचार २७-३८ निमित्त होवें ८
घही भार्मज्योति ज्ञान-दशनादिरूप सब कुछ है. ३९-७३ | यतिभावनाष्टकके पढ़नेका फल ९
मोक्षकी मी इच्छा मोक्षप्रा्तिमे बाधक हे অই
भम्य जीवको चेतन्यस्वरूप भात्माका विचार ६, उपासकसंस्कार १-६२, एप, १२८
88878 আহি 7 धमस्थितिके कारणभूत भादि जिनेन्द्र
झनेक रूपोंको प्राप्त उस परमज्योतिका वर्णन व श्रेयांस राजाका स्मरण $
करना सम्भव नहीं है न ७८-६१ উন =
जो जीव उस भात्मतस्वका विचार दी करता हे दीर्घतर संसार किनका ह ই
घद्द देवोंछे द्वारा पूजा जाता है ६२ चिती लत अररे सी ४
सर्वक्ष देवने उस परमज्योतिकी प्राप्तिका उपाय गृहस्थ धर्मेके हेतु क्यों माने णाते हैं क
सा्यभावको यतखाया ह ह कलिकारमें जिनाखय, सुनिर्योकी स्थिति ओर
साम्पके समाना्क नाम व उसका स्वरूप ६४-६९ दानधर्मके मूल कारण श्रावक ६
समता-सरोवर के माराधक भारमा-हसके लिये गृहस्थोंके पट कमे ७
नमस्कार ७० सामायिक ब्रतका स्वरूप ८
क्षनी खीवको तापकारी सत्यु मी असत ( मोक्ष ) सामायिकके ल्यि सात व्यसनोंका याग भावदयक ९-१०
संगके लिये होती ऐै ७१
व्यसनीके धर्मान्वेषणकी योग्यता नहीं होती. ११
पिपेकके विना मनुष्य पयय लादिक्षी न्य्थता ७२ सात नरकोंने भपनी समृद्धिके लिये मानो
दिवेका स्वरूप ७३ एक एक ब्यसनको नियुक्त किया है... १२
पिदेकी जीवके लिये संसारम सब ही दुखरूप * पापरूप राजाने धर्मे-शञ्लुके विनाशार्थ अपने
प्रतिभासित होता है ७४ राज्यको साव ब्यसनोंसे सप्तांगस्वरूप
हिदेदी जीवके लिये ऐय क्या झोर उपादेय सयाहे ७७ किया ই १३.
में किस स्ूरूप हूं ७६ $ भक्तिसे जिनदशनादि करनेवाले स्वयं व॑दुनीय
एकर्चसप्ततिक लिये गंगा नदीकी उपमा ७७ हो जाते हैं १४
दह पएकसक्तति संसार-पमुदढसे पार হীন
जिनदुर्धनादि न करनेवालोंका जीना ब्यर्थ हैं
१५
एषं समान ह ७८ ' डपासकॉंकों प्रातः्काटसे ओर तत्पश्चात्
रुषे श्म सर त्त पिष्टनि शादि सद লালা ) क्या करना चाहिये ६६-९७
निष्ट प्रतिमातित होते है ५९ ` क्षान-लोदनङी पापिके कारणमूत गुस्मोकी
एकत्द्रूपहिए জওতাল मारिका रट ८०
डशाखना ६८-१५
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