पूर्व - भारतेन्दु नाटक साहित्य | Poorv - Bhartendu Natak Sahitya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ए) नाटक क्या है ८ सारसे ( 59८८४.) ने इस भाव को और अधिक स्पप्ट बनाते हुए कहा है-- “यदि सत्य को रंगमंच पर उपस्थित किया जायगा तो दशकों को वह बडा मयंकर प्रतीत होगा ।“**“”'नाख्य कला वह साधन है जिसके द्वारा, रंग- मंच पर, हम जीवन को अमिव्यक्त करते हैं और एकत्रित दशकों के लिए सत्य की छाया प्रदर्शित करते ই 1১৭ अतएव रंगमंच पर जो कुछ उपस्थित किया जाता है बह बह नहीं होता जो वास्तव मे हुआ है बरन बह होता है जो होना चाहिए था। जिस प्रकार एक चित्रकार अपने अपूर्ण आदर्श वो काट छाँट कर उसे अपनी कल्पना के अनुसार बना लेता है उसी प्रकार नाथ्यकला के नियमों मे जो कुछ नहीं भो समा सकता उसका समावेश नाटककार अपनी रचना से कर लेता है और जीवन को क्रियात्मक अनुरूप दे देता- हे। प्रकृति की यथाथता एक ओर रह जाती है और रंगसंच पर काम संभालने वाला वहाँ के प्रकाश, शूंगार-पदार्थ, दृश्य प्रभाव आदि में ही व्यस्त हो जाता है। क्योकि यही सब कुछ उसकी अभिव्यक्ति का- माध्यम होता है । कलाकार जीवन की घटनाओं में से केवल उन्हीं को चुनता है जो उसके लक्ष्य की पूर्ति मे सहायक होती हैं। इन घटवाओं के यथाथे ओर तकं जन्य विकास को प्रस्तुत करने मे ही उसकी कल्ला-कुशल्ता- हे । नाटककार का प्रधान घमं है जीवन को उस स्तर त्तह उठा कर दिखाना जिस पर पहुँच कर वह हमारे लिए कौतूहल और संवेदन' काः अंश बन जाय ओर प्रत्येक दृश्य हमारी आत्मा को आनन्द एवं उत्सुकता से बिभोर कर दे। नाटक में बाह्य और अन्‍्तहंन्द्र के ऐसे हस्य होने चाहिए कि आत्मा अपने ऊपर पड़ने वाले सभी बाह्य प्रभावों से परिचित हो ओर समस्त अवरोधों को रौंदवो हुई सफलता की ओर अग्रसर हो। थे अवरोध जीवन में अनेकों रूप--नियति, सामाजिक, व्यक्तिगत, महत्त्वाकांक्ञागत अथवा इंष्योजन्य आदि आदि;-घारण करते हैं। भारतीय नाटक में प्रतिनायक की आवश्यकता का यही रहस्य है ॥ १, 2 11९09 ० धी& 1४४४८, >, 31,




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