करकंड चरिउ | Karakanda Chariu

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Karakanda Chariu  by डॉ हीरालाल जैन - Dr. Hiralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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॥ प्रस्तावना १३ निर्देश है--पाहिलवाटिक़ा, चन्रवाटिका, लघुचन्द्रवाटिका, शक्ररचाटिका, पत्ताइतवयादिया, आसवाटिा, और पगवाटिका | ( जँ° शि° ले० सग्रह, भाग २, लेस न० १८७, पृ० १९० )। उन वाटियाओोमे दाताने अपने नापके अतिरिक्त अपने धर्मरक्षक नरेश, उनके विद्येप उष्टदेव शित्र तवा उन चन्द्रायेय प्र एव चन््रकेगचार्याम्नायको स्मृति चिरस्थायो वनानेका प्रयत्न किया प्रतीत होता है। आू्चप्र नहीं, जो यह चन्द्रकराचार्याम्नाय चन्देलबशी राजकुलमे-से ही हुए किसी जैन मुनिने स्थापित की हो । स्वग कनद्ममर भी इस राजवणके रहे हो, तो आइचर्य नहीं। चदेछोक क्षतियमा ने जने एत बनकाम~द्राग এনননী ब्राह्मण कहे जानेसे उक्त वाततम कोई विरोध उत्पन्न नही होता । घन्देल अपनेगों अदश्रि ये चस्द्रातेयरी सन्तान तो मानते ही हैं। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, चन्देलवज्ञों नरेश जेज्जाफ़ नाग নী নুন खड जेजकभुक्ति कहलाया और यहाँके जुशौतिया ब्राह्मण आज त्तक भी प्रमिद्ध हैं। वेयछू गाजयनी एने चन्देल राजपूत जातियोमे गिने जाने रगे है । प्रथकारकी गुर-परम्परा प्रथके भारम ( १,२, १) मे कविते सरस्यतीके भतिखित पटित मगलदके चरणाका स्मरण किया है । तथा अन्तिम प्रश्नस्ति ( १०, २८, ३ ) में अपनेको बुध मगलदेवका पिप्य कहा है 1 एमन उनके गु्का नाम मगलदेव स्पष्ट है । इन मगख्देवका तथा उनके गण-गच्ड बादिफा अन्व कौ परिचय प्रथम नही पाया जाता । कितु रत्नाकर या धर्मरलाकर नामका एकं मस्छृते ग्रथ मिलता हैं जिसमें उसके कर्ता- का नाम पिते मग दिया गया है । इम प्रथकी एक प्रति वलातकार जैन भण्डार, कारजामे ( बेटेखाग माफ सस्कृत एण्ड प्राकृत मैनुस्क्रिप््स इन सी पी एण्ड बरार, क्रमाक ७८२९ ) तथा दूसरी प्रति शास्त्र भण्डार दि० जैन मन्दिर पाठोदी, जयपुरमे है ( राजस्थानके जैन शास्त्र भण्डारोकी ग्रथ सूची क्र० ७७८ )। इस जय्पुरकी प्रतिमें ग्रथका अतिम पृष्पिका-वाक्‍्य है, “घ ० १६८० वे काप्टासपे ननन्‍्द्तवभाम भद्दधारक श्रोभूषणश्िण्य पढित सगलकृत शास्त्ररत्वाकर नाम शास्त्र सम्पूर्ण ।” इसपर-से ऐमा प्रतीत होता है जैसे स० १६८० ग्रथकी रुवनाका काल हो । कितु यथार्थत यह कालनिर्देश उक्त भ्रतिके लेखनका ही हो कता है, क्योकि कारजा शाघ्नर्भण्डारकी प्रतिमे उसका छेखनकाल १६६७ अकित है । काएठासव गौर नम्दि- १ट प्रामका प्राचीनतम उल्लेख देवसेनक्ृत दर्शनसार ( गा० ३८ ) में प्राप्त होता है, जहाँ विक्रमराजकी ये अर्थात्‌ विक्रम खवतुके ७५३ वर्पमे नम्दितर ग्राममे काहासघकी उत्पत्ति कही गयी ह । पदि कनकामरके कालके समीप स सघके श्रीभूषण और उनके शिष्य मगलदेवका अस्तित्व सिद्ध हो तो वे हो प्रस्तुत ग्रथ कतक गुर माने जा सकते है । किन्तु वर्तमाने उक्त घर्मरत्म मरलनाकरकी पुष्पिकाके अतिरिक्त अन्य कोई साधक-बाधक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। हाँ, कुछ सशय उत्पन्न करनेवाली यह बात अवश्य है कि कविने उक्त गण-गच्छका उल्छेख न करके अपनेको चरन्द्रापि गोत्रीय कहा है इथका विषय न 1 इस ग्रथम करकडु ( अपअक्ष-करकड सक्षेपमे यह कथा इस प्रकार है अगदेशकी चम्पापुरीमें घाडीवाहन राजा राज्य करते थे। एकबार वे ये पद्मावती नामकी एक युवतीको देखकर उसपर मोहित हो गये । युवतीका এমন প্‌ बातचीत करने आदिसे पता लगा कि वह युवती यथार्थमें कौक्षाम्बीके राजा वसुपारकी पुत्री थी । जन्म- समयके अपदाकुनके कारण पिताने उसे जमना नदोमें बहा दिया था । राजपुत्री जानकर घाडीवाहनने उसका पाणिग्रहण कर लिया ओर उसे चम्पापुरी छे आये । कुछ काछ परचातू वह गर्भवती हुईं और उसे यह दोहला उत्पन्न हुआ कि मन्द-मन्द बरसातमें, मै नररूप धारण करके, अपने पतिके साथ, एक हाथीपर सवार होकर, सगर- ) महाराजका चरिन्न दक्य सधियोमें ' वर्णन किया गया है।




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