पिच्छि कमणडलू | Pichchhi Kamandalu
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
188
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)1
লিছ্ श्रपनी तनुकान्ति को लिये दिये प्रस्तंगत हौ जाता है, उसी प्रकार भ्रनधीत-
शास्त्र, अनुपाजिततपःसंयमाचार व्यक्ति भी पुरुषायुष मोगकर सामान्य दा में
ही भ्रस्तहो जाता है। वास्तविक गुह की महिमातोसू्यंसे भी भ्रधिकदै। सूर्ये
तो प्रतिदिन दिनप्रमाणा समय में प्रालोक वितीणं कर प््िविमकीभ्रोट हो जाता
दै किन्तु गुर्देवं तो रात्रिन्दिव भ्रहुरह जाग्रत् ही रहते है कमी इबते नहीं । सूयं
लोक के बाहधान्धकार का नाश करता है तो गुर बाहर-भीतर के सारे खोट रूपी
तिमिर को सदा के लिए ही श्रपास्त कर शिष्य को विमल-विरज कर देता है।
जैसे सू के भ्रस्त होते ही भ्रन्धकार पुनः दिशाझ्रों में व्याप्त हो जाता है, उस
प्रकार गुरु द्वारा निरस्त किया हुमा भ्रज्ञानहूप अन्धकार पुनः शिष्य की हृश्य
दिशाओं में शभ्रपना प्रसार नहीं कर पाता इस दृष्टि से गुरुपद सूर्य से भी उत्कृष्ट
है । इसीलिए चिर उपकृत शिष्य निम्न शब्दो मे गर के प्रति भ्रपनी विनीत श्रद्धां-
জলি श्रपित करता है-
श्रजञानान्धस्य लोकस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया |
चद्चुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
'गुरू शब्द की निरुवित में कहा गया है कि णुः शब्द अन्धकारपरक है
भौर 'र' शक उसका निवतंक है। इस प्रकार भ्रज्ञानान््धकार का निवारण करने
से ही 'गुरु' शब्द को साभिप्राय निष्पत्ति होती है। इस भ्राशय का वह इलोक है--
शु शङकदस्त्न्धकारे च “र' शब्दस्तन्निवरतैकः ।
श्नन्धक्रारविनाशिखाद् शुरु' रित्यभिधीयते ॥'
जीवन का प्रारम्म, उसकी शिक्षा-दीक्षा गुरुचरणों की उपासना से ही
सफलता की श्रोर प्रग्रसर होती है। प्राणी को कृताकृतविवेक गुरु के सान्निध्य
में ही प्राप्त होता है | गुरु का स्नेह श्रौर फटकार दोनों ही अशेष कामनाओों की
पूरक तथा योग्यता को दात्री है । जिस प्रकार दपं ( छाज, तितउ) से धान के
तुष को फटक कर अलग कर दिया जाताहैवेसेहीगरुकी फटकार से शिष्य के
दोषसमूह भलग हो जाते हैं। गुर संसार की उत्ताल-श्रान्दोलित समुद्राभ विषय-
वासना-कपाय-बहुल तरंगों से कुशल नाविक के समान बचाता हुआ उस पार
पहुँचा देता है अन्यथा भ्ज्ञान की शिला पर बैठा मनुज डूब जाता है, निष्देष हो
जाता है। गुरु ही ज्ञान की चिन्तामरि शिष्य को प्रदान करता है जिसके प्रकाश
में बह पथ-प्रपथ की पहचान कर भ्रपना स्वपर विवेक प्रशस्त करता है। गुरुदेव
की प्राराधना के बिना प्राप्त ज्ञान सन्दिग्ध होता है, उसे 'इदमित्थम' की निएचय-
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