स्वामी भागवदाचार्य | Swami Bhavdacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) आपत्ति अथवा कष्टकी हम कल्पना नहीं कर सकते । तब ऐसा क्‍यों न मान लिया लाय किं उसके पूवैन्मकी पञ्चके समान करूरताके दी यह सब फल हैं | अत एवं इस विषयमे माप निडर हो जार, मेरी यह इच्छा है। मनुष्य मरकर पशु-पक्षी नहीं बनता, किन्ठु निश्चय ही मनुष्य ही बनता है | अब हम मुख्य ग्िषय पर अवं । सत्कर्मके त्यागकी बातपर विचार करें। सत्कर्ममे स्वग भी मिल खकता दै जर “क्षीणे पुण्ये मत्येलोकं विशान्ति? इस सिद्धान्तके अनुसार र्वगंप्राप्त जीव पुण्यका क्षय ने पर इसी प्रथ्वीपर जन्म लेता है, और यहीसे उसका मोक्ष होता है| इससे यह समझा जा सकेगा कि सत्कर्म भी असत्कर्मकी भाँति मोश्षका साधन नहीं है | वह तो केवल स्वर्ग आदिका द्वी साधन है। अश्यभकर्म जिस प्रकार बन्धनरूप ई उसी प्रकार शुभकर्म भी बन्धनके ही कारण हैं। क्योंकि उनसे जन्म तो होता ही दै । जन्ममरणका चिदा फटता नदीं । बेड़ी छेदे की दो या सोनेकी हो, बन्धनकारक तो है ही । इसी प्रकार अस- त्क्मका बन्धन हो अथवा सत्कर्म॑का बन्धन दो, बन्धन तो दोनों ही है। अत एव सत्कर्मका भी त्याग करना वेदान्तमतमें आवश्यक है। आपलछोगों को यह नयी वस्तु सुनकर आदइचर्य होगा कि असत्कर्म- पापकर्मका त्याग तो हो सकता है और होना चाहिये, पर सत्कर्मके त्यागका औचित्य किस प्रकार माना या मनाया जा सकता है। अब हम इसीका विचार करें | पहले यह जान लेना चाहिये कि शुभकर्म और अश्यमकर्म का कोई विशिष्ट लक्षण नहीं है। अमुक कर्मको द्वी शम ओर असक कर्मको दी यञ्चम कदा जाय; माना जाय ऐसा कोई प्रशनल नियम नहीं हो सकता । जो क्रिया कछ शुभ मानी जाती थी वद्दी आज अश्ुम मानी जाती है । आज जो श्वम मानी जाती है वह कछ अश्युमरूप हो सकती है। समाज जिस कार्येको शुभ माने वह फार्ये उस समाजके सियमको माननेवालेके लिये शुभ दे-धमे हे। और वह




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