मेरी जीवन यात्रा | Meri Jivan-yatra
श्रेणी : जीवनी / Biography
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
29 MB
कुल पष्ठ :
570
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१८९९ ई० ] ३. अक्षरारभ ९
कनेलामे जोरका हैजा आ्राया | मे भी उस वक्त वही था। हमारे घर भरके स्त्री-
पुरुष बीमार पडे | हमे कपूरका पानी पीनेको मिलता था। भगवतीकी मिन्नतपर
मिन्नत मानी जा रही थी । मालूम नहीं घर भरमे कोई बीमारीसे प्रचेता भी रहा
या नही । हमारे घरमे कोई नही मरा, किन्तु बिरजूका परिचित चेहरा उसके बाद
फिर न देखे पानेका मुभे बहुत ग्रफसोस रहा ।
हैजेसे उठनेके बाद पुराने चावलका भात और इम्लीकी चटनीका पथ्य मु
बहुत मधुर मालूम होता था 1
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१८६६ ई०के भ्रन्तके जाडोमे मे फिर पन्दहामे था, ग्रौर श्रव मद्धु नही नये
,सेहपाठी दलसिगारके साथ रानीकीसरायकी पाठशालामे भरती हुआ । नये श्रध्यापक
बा० द्वारिकाप्रसादर्सिह नाटे और गठीले बदनके तरुण थे। वह हमारी कापियोपर
अपना हस्ताक्षर भ्रग्रेजीमे किया करते थे। अ्रग्नेजी एकाध किताब पढे हुए थे यह तो
मुझे तही मालूम, किन्तु वह नार्मल पास थे। गोरखपुर--शहर--मे रहनेका उनपर
काफी असर था । वह बात-चीत और पोशाकमे काफी नागरिक मालूम होते थे ।
उनके कपडे--कोट, कमीज श्रौर धौती हमेशा साफ उजले रहा करते थे) कसरत करते
थे या नही, यह् तो स्मरण नही, विन्त शामको पाच्रानेके लिये लोटा जियें वह दर
तक टहलने जाते थे । उस वक्त छड़ी बिना विद्या नही आती” यह स्वमान्य शिक्षा-
सिद्धान्त था, किन्तु मुझे जहाँ तक स्मरण है, द्वारिकासिह बहुत ज्यादा मारते-पीटते
नहीं थे, तो भी हम विद्याथियोपर उनकः काफी रोब था। पान खाते और
सीटी बजाते हुए चलनेका उन्हें वडा शौक था। उन्होंने किसीसे एक विलायती
कत्तीको लेकर पाला | न जाने कैसे उसकी कमर टूट गई, और महीनों हमारे
भ्रध्यापक मेहतर लगा सूझ्रके तेलसे उसकी मालिश कराते रहे ।
उस वक्त रानीकीसराय बहुत छोटीसी बस्ती थी। श्रभी रेल नहीं पहुँची थी,
और न मारवाडियो तथा दूसरे व्यापारियोकी दूकाने आ पाई थी । झ्राजमगढसे जौनपुर
पनौर बनारसकी शरोर जनेवाली पक्की सडक तथा घोडेगाडी (=सिकडम्)पर
चलनेवाली डाकके रास्तेपर होनेके कारण यह स्थान कुछ महत्त्व तो जरूर रखता था,
भर शायद कुछ दिन पहिले चीनीके कारखाने भी यहाँ चल रहे थे; किन्तु मेरे आर-
म्भिक दिनोंमे वहाँ हलवाइयोकी पॉच-सात दूकाने थी, जिनमें दोको छोडकर बाकी
जगहे गदा श्रौर गुडके लडभ्रा ही मिलते थे । पाच-सात दूकानोमे लवग-हलदी-रंगके
साथ कपडे भी विका करते थे । उस वक्त तक अभी सिलाईकी कल वहाँ नही पहुंच
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