आकाश दीप | Akash-deep

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Akash-deep by जयशंकर प्रसाद - jayshankar prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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झाकाश-दीप देकर देखो तो वह क्या नहीं कर सकता । जो तुम्हारे लिये नये दीप की सष्टि कर सकता है नई प्रजा खोज सकता है नये राज्य बना सकता है उसकी परीक्षा लेकर देखो तो... कहो चम्पा बह कृपाण से अपना हृदय-पिरड निकाल अपने हाथों ्रवल्न जल में विसजन कर दे --महानाविक--जिसके नाम से बाली जावा श्रौर चम्पा का श्राकाश गूँजता था पवन थर्सता था-- घुटनों के बल चम्पा के सामने छलछलाई आँखों से बैठा था । सामने शैलमाला की चोटी पर हरियाली में विस्तृत जल. देश में नील गेल पिडल संध्या प्रकृति की. सद्ददय कल्पना विश्राम की शीतल छाया स्वप्नलोॉक का सृजन करने लगी । उस मोहनी के रहस्थपूर्ण नीलजाल का कुदक स्कुट हो. उठा। जैसे मदिंरा से सारा झंतरिक् सिक्त हो गया । सृष्टि नील कमलों से भर उठी । उस सौरम से पागल चम्पा ने बुद्धगुप्त के दोनों हाथ पकड़ लिये । वहाँ एक अलिड्न दा जैसे क्षितिज में काश श्र सिन्धु का किन्तु उस परिरम्भ में सहसा चैतन्य होकर ्वम्पा ने झपनी से एक कपाण निकाल लिया | वुडगुप्त झाज मैं श्रपना प्रतिशोध का कुपाण श्रतल जल में डुबा देती हूँ। हृदय ने छल किया बार-बार घोखा दिया -- तक कर बह कपाण समुद्र का हृदय बेघता हुआ विलीन हो गया । तो ब्याज से मैं विश्वास करूँ ? क्षमा कर दिया गया ह ?-- अश्चय॑-कम्पित कणठ से महानाविक ने पूछा |




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