आधुनिक कवि [संस्करण ३] | Adhunik Kavi [Ed. 3]

Adhunik Kavi [Ed. 3] by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इस वस्तुवादप्रधान युग में भी वह अनाइत नहीं हुआ चाहे इसका कारण मनुष्य की रहस्योन्मुख प्रवृत्ति हो और चाहे उसकी लौकिक रूपकों में घुन्दरतम श्रभिव्यक्ति इस बुद्धिवाद के युग में मनुष्य मावपत्ष की सहायता से, अपने जीवन को कने के लिए कोमल कसौध्याँ क्यों प्रष्ठत करे, भावना की साकारता के लिए अध्यात्म की पीठिका क्यों खोजता फिरे और फिर परोत्त अध्यात्म জী प्रत्यक्ष जगत में क्‍यों प्रतिष्ठित करे यह सभी प्रश्न सामयिक हैं | पर इनका उत्तर केवल बुद्धि से दिया जा सकेगा ऐसा सम्मव नहीं जान पड़ता, क्योंकि बुद्धि का प्रत्येक समाधान अपने साथ प्रश्नों की एक बड़ी संख्या ' उत्पन्न कर लेता है । साधारणृतः अन्य व्यक्तियों के समान द्वी कवि की स्थिति भी प्रत्यक्ष जगत की व्यष्टि और समष्टि दोनों ही में है। एक में वह अपनी इकाई में पूर्ण है और दूसरी में वह अपनी इकाई से बाह्य जगत की इकाई को पूर्ण करता है | उसके अ्रन्तजंगत का विकास ऐसा होना थ्रावश्यक है जो उसके व्यष्टिगत जीवन का विकास और परिष्कार करता हुआ समष्टिगत जीवन के साथ उसका सामज्ञस्य स्थापित कर दे। मनुष्य के पास इसके लिए केवल दो दी उपाय ई, वुद्धि का विकास श्रौर भावना का परिष्कार । परन्तु केवल बद्धक निरूपण जीवन के मूल तत्वों की व्याख्या कर सकता है, उनक्रा परिष्कार नदीं जो जीवन के सरवंतोन्मुखी विकास के लिए ्रपेदित ই श्रौर केवल भावना जीवन को गति दे सकती है दिशा नहीं | भावातिरेक को हम अपनी क्रियाशीलता का एक विशिष्ट रूपान्तर मान सकते हैं जो एक ही छण में हमारे सम्पूर्ण अन्तर्जगत को खशं कर बाह्य जगत में अपनी अभिव्यक्ति के लिए अत्थिर हे उठता है; पर ब॒द्धि- के दिशानिदेश के अभाव में इस भावप्रवेग के लिए अपनी व्यापकता की सीमा खोज लेना कठिन हो जाता है अ्रतः दोनों का उचित मात्रा में: सन्ठुलन ही अपेकद्धित रहेगा |




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