परिग्रह परिमाण व्रत | Parigraph Pariman Varat  

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३ ५“ ` इच्छाम्मुखा देखते हैं, कि इच्छा और मुंछो का जन्म कैसे होता है, तथा इनका स्वरूप केसा है । संसार में जन्मः छेने वाले भ्राणी कम्पि होते है। यदि कमलिप्त न हों, तो संसार में जन्म ही न छेना पड़े । यह बात दूसरी है, कि कोई जीव कर्मों से कम लिप्त है और कोई अधिक: लिप्त है, लेकिन जो संसार मे जन्मा है वह कर्मलिप्त अवश्य है । कम॑रिक्त होने के कारण, आत्मा अपने सरूप को नदीं जानता, - अथवा जानता भी है तो विश्वास या ददता नदीं रखता । आत्मा, सबिदानन्द स्वरूप है । यह सत्‌ अथीत्‌ सदा सहने वाखा चिद्‌” - अर्थात्‌ चेतन्य रूप और आनन्द अर्थात सुख-निधान है । यहः स्वयं सुख रूप है, फिर भी कर्मलिप्त होने के कारण अपने में रहा हुआ सुख नहीं देखता, स्वयं में जो सुख है. उस पर विश्वास नहीं करता, लेकिन चाहता है सुख ही । इसलिए जिस प्रकार स्वयं: की नाभि में ही सुगन्धं देने बारी कस्तूरी होने पर भी, मृग, घास फूस को. संघं २ कर उसमें सुगन्ध खोजाता हैः उसी भकार आत्मा भी वयं में रहे हुएं छुख को भूछ कर दृश्यमान जगत में सुख मानने छंगता है | हंश्यमान जगत में सुंख है, यंह संमझ कर आत्म बुद्धि 'को, और बुद्धि मंन-को प्ररित करंती है, तथां मंन उस- सुख को अपन करेंने के छिए चंचल हो उठता है। -इंस प्रकारं मनम + , सांसारिक पदार्थों की इच्छा : उतपन्न. दोती । ` अर्थात बाह्य जग পর আনলক दू




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