भागवत दर्शन | Bhagwat Darshan

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Bhagwat Darshan by श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी - Shri Prabhudutt Brahmachari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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শটে ५ ^ (^ सवकौ भो मना करतां ह । दँ, कोई शान्तहो, सांत्विक हो कोध रहित हो, श्रद्धा से मुझमें सेंट करे उसे तो सें अहण कर सता हूँ ।” है है द्रौपदीजी नेकहा--“हम आपके भक्त है यानहं, हम अद्भा से भेंट करते हैं. या नहीं[इसे आपके अतिरिक्त और कौन जान सकता है १? न | भगवान्‌ ने कहा--“तुम तो भक्त हो, और तुम जो भेट करते हो भ्रद्धा से करते हो, किन्तु यह फल तो दूसरे का भाग है ।* 'द्वीपदी ने कहां--भगवन्‌ ! दूसरे का किसका है, वन के फलों पर समान रूप से सबका अधिकार है, जो उसे तोड़ ले उसी का हो गया।? ^ भगवान्‌ ने कदा-- यद तों सत्य ह किन्तु तुम्हें पता नहीं । इसी वनमें परम क्रोधी महर्षि दुर्वासा तपस्या करते है । बे वपं मे एक बार ही फलाहार करते हैं, सो भी इसी पेड़ का फल खाते हैं। उनकी तपस्या के प्रभाव से हीं यह आँवला इतना बढ़ गया है । तपस्वी की इच्छा पूर्ति नहीं होती है, तो उसे क्रोध आना स्वाभाविक ही है। य ही दुर्ासा तपस्याके अनन्तरे केवल भोजन करने ही श्रीरामचन्द्रजी के समीप गये थे | लक्ष्मणजी ने इतना ही कहा--इस समय राघवेन्दु कोई गुप मंत्रणा कर रहे हैः श्राप क्ण भर विश्राम करें ।” बस, इतने पर ही कुपित दो गये सम्पूणं रघुवंश को नप्ट करने पर उद्यत हो गये 1 लक्ष्मण” जी अपने प्राणों का पण लगाकर श्रीराम की आज्ञाके विरुद्ध भीतर गये और यह तनिक-सी घटना ही सपरिवार भ्रोराम के अवनि त्याग का कारण वन गयी 1 सो ये दुवासा बंड़े क्रोधी हैं। तपस्या के परचातू सेडू पर आँवले फो न देखेंगे, तो छूटे ही ऑँवलों तोड़ने चाले'




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