धर्मामृत | Dharmamrta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना १५ क्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोइतिदूरमपि शिष्यः! अपदेऽपि संपरतृ्तः प्रतारितो मवति तेन दुर्मतिना ॥१९॥ जो अल्पमति उपदेशक मुनिषर्मको न कहकर धावकधर्मक उपदेह देता है उसको जिनागममें दण्डका पात्र कहा ह । क्योकि उस दुुदधिके क्रमका भंग करके उपदेश देनेसे अत्यन्त दूर तक उत्साहित हुआ भी शिष्य श्रौता नुच्छ स्थानमे ही सन्तुष्ट होकर ठगाया जाता है। अतः वक्ताको प्रथम मुनिधर्मका उपदेश करना चाहिये, ऐसा पूराना विधान था । इससे अन्वेषक विद्र तोके दस कथनमे कि जन धर्म ओर बौदढषमं मूरूतः साधुमा्गीं धर्मं थे यथार्थता प्रतीत होती है । लोकमान्य तिलकने अपने गीता रहस्यमे लिखा हे कि वेदसंहिता और ब्राह्मणोंमें संन्‍्यास आश्रम आवश्यक नही कहा गया । उलटा जेमिनिने वेदोका यही स्पष्ट मत बतलाया है कि गृहस्थाश्रममें रहनेसे ही मोक्ष मिलता है। उन्होने यह भी लिखा है कि जेन और बौद्धघर्मके प्रवर्तकोने इस मतका विद्येष प्रचार किया कि संसारका त्याग किये बिना मोक्ष नही मिलता । यद्यपि शंकराचार्यन जेन और बौद्धोका खण्डन किया तथापि जन भौर बौद्धोने जिस संन्यासधर्मका विशेष प्रचार किया था, उसे ही श्रौतस्मार्त संन्यास कहकर कायम रखा । कुछ विदेशी विद्वानोका जिनमें ड[० जेकोबी का नाम उल्लेखनीय हैं यह मत हैँ कि जैन और बौद्ध श्रमणोके नियम ब्राह्मणधर्मके चतुर्थ आश्रमके नियमोंकी ही अनुकृति हैं । किन्तु एतहेशीय विद्वानोका ऐसा मत नहीं हैं क्योंकि प्राचीन उपनिषदोमे दो या तीन ही आश्रमोका निर्देश मिलता है। छान्‍्दोग्य उपतिषद्के अनुसार गृहस्थाश्रमसे ही मुक्ति प्राप्त हो सकतो है। शतपथ ब्राह्मणमे गृहस्थाश्रमकी प्रढ्सा है ओर तैत्तिरीयोपनिषदुर्मे भी सन्‍्तान उत्पन्न करनेपर ही जोर दिया है। गौतम धम्म- सूत्र ( ८८ ) में एक प्राचीन आचार्थका मत दिया है कि वेदोको तो एक गृहस्थाश्रम ही मान्य है। वेदमें उमीका विधान ह अन्य माश्रमोका नही । वाल्मीकि रामायणमे संन्‍्यासीके दर्शव नहीं होते । वानप्रस्थ ही दृष्टिगोचर होते है 1 महाभारतमे जव युधिष्ठिर महायुद्धके पश्चात्‌ सन्यास लेना चाहते है तद भीम कहता ह~ शास्त्र लिखा हे कि जब मनुष्य संकटमें हो, या वृद्धहो गया दहो, या शत्रुभे त्रस्त हो तब उसे सन्यास लेना चाहिए । भाग्यहीन नास्तिकोने हो संन्यास चलाया है । अतः विद्वानोका मत है कि वानप्रस्थ भौर संन्यासको वैदिक भायोनि अवैदिक संल्कृतिसे लिया है ( हिन्दूषमं समीक्षा पृ १२७ } अस्तु, जहाँ तक जेन साहित्यके पर्यालोचनका प्रश्न है उससे तो यही प्रतीत होता है कि प्राचीन समयमें एक मात्र अनयार या मुनिधमंका ही प्राघान्य था, श्रावक धर्म आनुषंगिक था। जब मुनिधर्मकी घारण करने- की ओर अभिरुचि कम हुई तब श्रावक घर्मका विस्तार अवश्य हुआ किन्तु मुनि घर्मका महत्त्व कभी भी कम नही हुआ, क्योकि परमपुरुषार्थ मोक्षकी प्राप्ति मुनिधर्मके बिना नहीं हो सकती । यह सिद्धान्त जैन धर्ममें आज तक मी अक्षुण्ण हैँ । ५. धामिक साहित्यका अनुशीलन हमने ऊपर जो तथ्य प्रकाशित किया है उपलब्ध जैन साहित्यके अनुशीलनसे भी उसीका समर्थन होता है । सबसे प्रथम हम आचार्य कुन्दइन्दको लेते है। उनके प्रवचनसार और नियमसारमें जो आचार विषयक चर्चा है वह सब केवल अनगार धमते ही सम्बद्ध हं । प्रवचनसारका तीसरा अन्तिम अधिकार से. बु £ भिल्द २२ को भस्तावना षू, ३२




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