धरती घणी रुपाली | Dharti Ghani Rupali

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Dharti Ghani Rupali by शक्तिदान कविया - Shaktidan Kaviya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हो बोर ढोवण काज महे तो, बढध झादू जाम रा सम्राट बण पायी किसू वि जे जीतग्या समार ने, जे हो सका नी शाप रा, मजदूर म्हें विन दाम रा ! पूसा सहज ही अनुभव होता है मानी इस कविता में क्षक्तप्रवर महाकवि वुब्मीदाम की दिव्य वाणी गु जायमान है। পন में 'धरम री मग्रछ जोत जले कविता में सार्वभौभिक मानव- बल्याण वी कामना के साथ प्रदारालर सें इस काव्य-्सकलन का माहात्म्य प्रशाशमान हुप्रा है-- पृण पत्तः खव मड जाय, मानवी हरियादढी हराय, भ्ठ मगद्या हौ मानवर्वषु, मेह सू सागे झ्राज गले । धरम रो मगर: जोत जढ्े ॥ श्वसती पणी रुपाद्दी' बाध्य संग्रह से ऊपर जो विविध उद्धरण दिये गये $, उभ पकर कोर भो पाटक ऐसा भनुभव नही करता कि यह राजस्थानी भाषा दी मौलिव रचता ने द्ोकर वस्तुत. प्रतुवाद मात्र है । यह सब विद्वान प्रगुदादद हश शक्तिदन कविया वी विद्वत्ता भौर बहुविध योग्यता का सुफ्ल दै) प्रपा राजस्थानी भाषा-साहित्य का भध्ययन बडा गम्भीर एवं विस्तृत है । साथ ही धापको शब्द-सम्पदा भी भ्रत्यन्त विशाल है। आपने प्रत्येक राजम्पानी शब्द-रत्त दा मोल पूर्णतया परल लिया है । फ्लत, भ्रापका प्रमोग महज ही भपने भये-गीरव को प्रकट बरने में समय है । इसके साथ हो डा कविया स्वय राजश्यानी भाषा के श्रप्रगण्य कवियों में प्रशिष्टित हैं । भाष पूरातन के साथ ही भ्रधुतातन राजस्वानों रा्य-धारा, से भुपरिचित हो नही, उसके सर्जनाधोल विद्वानु भी हैं। अतृवादक का कार्य चष्टा कदित माना जाता है, परम्तु जो विद्वानू दोनो भाधामो का भर्मझ हू, डगके छिए यह काप्र महज भो है । डा कविया के लिए ভিজ গত বা भ्पानी दोनों भाषाएँ वृतया प्रान्मौय भाव रन है। इतना ही नहीं इन दोनों भाषाएों के प्रतिरिक्त भारत की सत्र प्रापुनिकः श्रादे भाषाप्रो को इस प्रदान ढस्ले दानो देवदाणों सस्कृत वा वरदान भी प्रापय प्राप्त है,




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