धर्मवीर भारती का व्यक्तित्य एवं कृतित्व | Dharamveer Bharti Ka Vyaktitya Avm Kritatva

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Book Image : धर्मवीर भारती का व्यक्तित्य एवं कृतित्व  - Dharamveer Bharti Ka Vyaktitya Avm Kritatva

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[7] एकाकी 1947 में रच उठा था। उपन्यास “गुनाहों का देवता? के वाद भारती अज्ञेय द्वारा सम्पादित दूसरा सप्तक” मे सम्मिलित हुए। इसमें इनकी बारह कवितायें समायोजित की गईं। प्रथमत कवि के रूप में भारती जी पाठकों के समक्ष आये। यह 1951 का वर्ष था। इसमे सग्रहीत अपनी कविताओं के विषय मे भारती जीने स्वत लिखा है- “भेन सबसे पहले लिखे सरलतम भाषा मे रग-बिरगी चित्रात्मकता से समन्वित साहसपूर्ण उन्मुक्त रूपोवासना ओर उदाम यौवन के सर्वथा मासल गीत जो न मन की प्यास को झुव्लाये और न उसके प्रति कोई कुठा प्रकट करें। जो सीधे ढंग से पूरी ताकत से अपनी बात आगे रक्छे। आदमी की सरल ओर सशक्त अनुभूतिर्यो के साथ निडर खेल सके बोल सकें।”'” साहित्य- यात्रा का यह पथी भारती रूपाशक्त्ति उद्वेलित उद्दाम यौवनोद्रेक ओर प्रणयोन्माद में गतिशील रहा | भारती जी की प्रथम स्वतत्र काव्यकृति “ठडा लोहा? है। यह रखचना-सन्‌ 1952 ई0 में प्रकाशित हुई। भारती जी के कवि-व्यक्तित्व पर टिप्पणी करने वालों का अनुमान है कि इस सग्रह की कविताओं मे प्रथम पत्नी कान्ताः से सम्बन्ध विच्छेद वाले छह वर्षो का एकाकीपन मुखर हो उठा है। कवि ने भूमिका में लिखा है- “सभी मेरी कविताएं ठै। मेरे विकास ओर परिपक्वता के साथ उनके स्वर बदलते गए है। पर आप जरा सा ध्यान से देखेंगे तो सभी में मेरी आवाज-पहिचानी-सी लगेगी। प्रणय रुपाशक्ति की गलियों से गुजर कर अपने से बाहर की सच्चाई एक जनवादी भावभूमि की खोज कवि का लक्ष्य रहा। मेरी परिस्थितियां मेरे जीवन मे आने ओर आकर चले जाने जाने वाले लोग, मेरा समाज मेरा वर्ग, मेरे संघर्ष, मेरी समकालीन राजनीति ओर समकालीन साहित्यिक प्रवृत्तियों, इन सभी का मेरे ओर मेरी कविता के रूपगठ्न ओर विकास मे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष योग रहा है।””'' इस संग्रह में तुम्हारे चरण”, 'उदास तुम”, “डोले के गीतः, बेला महका, 'फिरोजी हॉठ', 'सांसों का इसरार', और मुग्धा आदि उनन्‍्तालिस (39) कविताएं संकलित है। सभी रागानुयाग और श्रृंगार भावों से परिपूर्ण है। इसी क्रम में सन्‌ 1955 में भारती जी ने हिन्दी साहित्य को एक नाट्य-काव्य दिया-'अन्धायुगः । यह महाभारत के कथानक पर आधारित एक उत्कृष्ट कृति है! इस कृति के संदर्भ मे स्वयं भारती जी का कथन है- “महाभारत के युद्धोपरान्त




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