छाया कहानी - संग्रह | Chhaya Kahani - Sangrah

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Chhaya Kahani - Sangrah by जयशंकर प्रसाद - jayshankar prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ तानेन सरदार--(हंसकर) भला ! उस्कानमक्याहै? सरदार-पत्नी--वही, सौसन--जिसे में देहली से खरीदकर ले आई हूँ । सरदार--क्या खूब ! अजी, उसको तो मैं रोज देखता हूँ। वह गाना जानती होती, तो क्या मै आजतक न सन सकता! सरदार-पत्नी--तो इसमे वहस कौ कोई जरूरत नहीं है । कल उसका ओर रामप्रसाद का सामना कराया जावे । सरदार--क्या हजं । र्ठ आज उस छोडे-से उद्यान में अच्छी सजधज है । साज लेकर হাজিগাঁ बजा रही है । सौसन' संकुचित होकर रामप्रसाद के सामने बेठी है। सरदार ने उसे गाने की आज्ञादी । उसने गाना আহক किया-- कहो री, जो कहिबे की होई। बिरह बिथा अन्तर की बेदन सो जाने जेहि होई॥ ऐसे कठिन भयें पिय प्यारे काहि सुनावों रोई। स्रदार्ता सुखभूरि मनोहर ले जुगयो मन गोई॥ कमनीय कामिनी-कण्ठ की प्रत्येक तान में ऐसी सुन्दरता थी कि सुननेवाले, बजानेवाले--सब चिंत्र लिखे-से हो गये । रामप्रसाद की विचित्र दशा थी, क्योंकि सौसव के स्वाभाविक भाव जो उसको ओर देखकर होते थे--उसे मुग्ध किये हुए थे । रामप्रसाद गायक था, किन्तु रमणी-सुलभ भर-भाव उसे नहीं आते थे । उसकी अच्तरात्मा ने उससे धीरेसे कहा कि सवसव हार चुका ! सरदार ते कहा--रासप्रसाद, तुम भी गावो । वहु भी-एक अनिवायं आकर्षण से--इच्छा न रहने पर भी, गाने रूगा।




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