ज़िन्दगी मुसकराई | Zindagii Musakaraai

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Book Image : ज़िन्दगी मुसकराई  - Zindagii Musakaraai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पृष्ठभूमि ११ कितनी बार मैंने उस दिनके बारेमें सोचा, दूसरोंसे पूछा और तब कहीं मुश्किल तमाम सोमवार आया। डाकख़ाने गया, 'সনাঘ' आया, बाँसों उछ- लते दिल उसे खोला, खोजा, पर उसमे कहीं मेरा लेख न था । जीवनकी वह सबसे बड़ी असफलता थी - ऐसा धक्का मुझे फिर बादमें भी कभी नहीं लगा। धरती घूम गयी; आकाश टूट गिरा और घर आया, तो हिचकियों रोया। रोकर सो गया, सोकर उठा, तो वही उधेड़-बुन । दोनों लेख पढ़कर अपना लेख पढ़ा और क्या बताऊ, मुझे तो अपना ही लेख सर्वोत्तम जंचा। मेने उसकी फिर नकल को ओर गणेराशंकरजीको एक पत्र लिखा । इस पत्र- में उनकी महत्ताके गब्बारे थे, तो उनके सहकारी सम्पादकोंकी अज्ञानताके नारे भी थे । कहा था : वे लोग रचनाओंका महत्त्व नहीं समझते, सिर्फ़ प्रसिद्ध छेखकोंका नाम देखकर ही केख-वेख छाप देते हँ । सावधान किया गया था कि इससे आपके यशमें धब्बा लगता है ओर प्रताप को बहुत नुक- सान होता हैं। अपने लेखको पूर्ण, उपयोगी और सर्वोत्तम कहा गया था। यह पत्र रजिस्ट्रीसे उनके नाम भेजा गया था : आशा है यह पत्र आपको निजी समयमें मिलेगा ओर मुझे अपने सहकारियोंके अत्याचारसे बचा सकेंगे । उस समय यद्यपि बेचारे कन्हैयालालजी मध्यमाके चतुर्थ खण्डकी परीक्षामें फल हुए विद्वान्‌ थे, पर अपने प्रह्मरको प्री शक्तिदेनेके लिए लेखके नीचे लिखा गया था : लेखक कन्हँयालाल मिश्र शास्त्री । लिफ़ाफ़ा भेजा, तो साँस आया - अब देखूँगा कि ये टुटपूजिए सहकारी कैसे मेरा लेख रोकते हैं !' पाँचवें दिन एक कार्ड आया। छोटे-छोटे अक्षरोंमें स्वयं गणेशशंकरजीने लिषा था : तुम्हारी वातोंसे सहमत नहीं हूँ, पर तुम्हारे उत्साहकी क्॒द्र करता हूँ। लेख ठीक करके दे दिया हैँ, इसी अंकमें जा रहा है । में भविष्य- वाणी करता हूँ कि तुम शीघ्र ही एक प्रसिद्ध छेखक हो जाओगे । रोम-रोममें खुशी फूट निकली और सोमवार तो अगला युग ही हो गया । डाकखाने गया, 'प्रताप' आया, वहीं खोला, अपना छपा नाम देखा




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