चिदंबरा | Chidambara

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Chidambara by श्री सुमित्रानंदन पन्त - Sri Sumitranandan Pant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कर मातव जीवन तथा मल को व्यापक घरातल पर उठाने के अमिप्नाव से युग का ध्यान नवीन चंतत्य तथा अध्यात्म के झिखरों ही और आकृष्ट किया और झतियों के पुंजीभूत निष्किय मानस भंघकार को नवीन स्वप्तों की सुनहली लपटों में जगाने चप्टा की | इसमें मेरी निर्मम सोमाएँ परिलक्षित होती हों, पर ये दे ज्तौमाएँ नहीं, जिनकी कि पक्षथर झालोबक घोषणा करते हैं। भरा भावप्रवण हृदय बचपन से ही सौन्दर्य के प्रेरणाप्रद स्परशों के प्रति संबे- दनझोल रहा है, वह सौंदर्य चाहे नेसगिक हो या सामाजिक, मानसिक हो था घाध्या- कहिमिक । मैं हिमालय तथा कूर्माचल के ध्राृतिक ऐश्बर्य से उसी प्रकार कियोरा- वस्या में प्रभावित हुआ हूँ, जिस प्रकार युव/वस्वा में गांधीजी तथा मास से अथवा मध्य बयस में थी ग्रकिद के दर्शन तथा व्यक्तित्व ले। हिमालय पर मेरी सबसे बड़ी रचना मद्रास में लिखी गई, जहाँ विशाल समुद्र के ठट पर हिमालय के बिराद्‌ सौन्दर्य की शुज्न स्मृति मनस्चक्षुओं के सामने निखर उठो मोर किर जवन कौ रेक मधुर स्मृहतियों एवं नुमो ने जीप प्रवासी मन में हिमाद्वि तथा “हिमा और समुद्र” शीर्षक रचनाएं मूर्तं हो उठों । युवावस्था के प्रारंभ में रबीद्रताव तथा प्रंवेजी कब्नियों ने भी मेरी कला-रूचि का संझका र किया है; किस्तु कल्ा-रुचि एवं सौंदर्यवोध मे भी अ्रधिक मूल्यवान जो इस युग के लिए तवोन भाव-चंतन्य, नवीन सामाजिकतता तथा नजौन मानता का बोध है वह मुभे गांधी, भाक्सं तथः श्री प्ररंविद के संपर्क से विकसित हुसा । निस्संदेह, मेरे भीतर अपने दिशिष्ट संस्कार रहे ह । भ्रु होने पर अपने युग तथा समाज से मुझे घोर असंतोप रहा है । धरती के जीवन को सवीन मानवीय ऐद्बर्य एवं सौंदर्य से म॑डित देखने की दुनिवार प्राकांक्षा मुझमें, মি कलपनाशील होने के कारण, युवावस्था ही में हो गई यी। साथ ही, मेरे मोतर अनेक प्रकार की वौद्धिक, मावरिक सूक्ष्म प्रक्रियाएँली निरंतर अलठी रही हैं, जिनसे ग्रहणशीलला की बुद्धि के अतिरिक्त, मुझे धतेझ उपलब्धियाँ मी डोती रही हैं। मैंने आहर के प्रभावों को सदैव अपने ही ग्रंदर के प्रकाश में गहण किया है, प्रौर वे प्रभाव मेरे भीतर प्रवेश कर नवीन ह्टिकोगों तथा उपकरणों से मंडित होकर निरे, जिन्हें मैं समग्र-समय पर भ्रपनी रचनाओं में टाणी दे सका हूँ। जब सानव-मत की सूक्ष्म भनुभूतियों के प्रति , प्राधुनिकता रा दाबा करने वाले , प्राज के कोरे वौडिक संदेह प्रकट करते हैं, तो यह मसभते में देर हड्टों लगती कि उनकी बौद्धिकता तथर आधुनिकता कितने गहरे पानी में है। 'चिदंदरा' को पृथु-पकृति में बरी भौतिक, सामाजिक, मानसिक, देखकर पाठकों को उतके मीवर व्य [ले सकेगी । इनमें, मैने प्रपनी सी: के जीवत तथा चैतस्प छो, तवीन मानदतः भन किया ह । चरो इटि সু का एक ही संचरण है, {जक नीनर मौ दविषद मानव करी व्रकृनिके सीर दध्यात्मिक नर्णां को নাল ए नव है; ८




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