चतुर्भाणी | Chaturbhani

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Chaturbhani by मोतीचन्द्र - Motichandraश्री वासुदेवशरण अग्रवाल - Shri Vasudevsharan Agarwal

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श्री वासुदेवशरण अग्रवाल - Shri Vasudevsharan Agarwal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चतुर्भाणी समम छेदा चादि किं भाणो में हास्य-रस की ही प्रधानता होती है । उनमें तो श्ञार ओर अरश्लीर्ता ही अधिक होती है । इन भाणों के रूढ़िगत विवरणों में इतनी समानता होती है कि पढ़ने बालों का जी घत्ररा जाता है। शायद इसीलिए जनता से भाणों का चल्लनन उठ गया । लेकिन चुर्भाणी के पढ़ते ही यह बात साफ हो जाती है कि उनका उद्देश्य तत्कालीन समाज और उसके बढ़े कहे जाने वालों की कामुकता का प्रदर्शन करते हुए उन पर फत्रतियाँ कंसना और उनका मजाक उड़ाना था । चतुर्भाणी के बिठ जीते-जागने समाज के एक अंग हैं जिनका ध्येय हँसना-हँसाना ही है । इन भाणो में कहीं-कहीं अश्लीलता अ्रवश्य आरा गई है लेकिन विटो और आकाशभाषित पात्रों के संवाद की शैली इतनी मनोहर और चुटीली है कि जिसकी बराबरी संस्कृत-साहित्य में नहीं हो सकती | चतुर्भाणी के भाणों की एक विशेषता यह है कि इनमें स्थापना बहुत छोटी होती है | पादताडितकम्‌ के सिवा दूसरे भाणों में न तो लेखक का नाम आता है और न भाशण प्रस्तुत करनेका समय | सिवाय धूतंविट-संवाद के इन भाणों में विट स्वयं नायक न होकर मने मित्रो का उनकी ग्रेयसियों के पास संदेशवाहक है | पद्चप्राभ्नतकम्‌ में मूलदेव का मित्र शश ही वि है; धू्त॑बिट-संवाद के विद का नाम देविलक है और उभयाभिसारिका के विठ का नाम वैशि- काचल | पादताडितकम्‌ के बिट का नाम नहीं मिलता | पर चायं भाणो म उनके असली नाम छोड़ कर विट शब्द ही प्रयुक्त हुआ है। बाद के भाणों की तरह चतुर्माणी के भाणों का आरस्म प्रातःकाल के वर्णन से न होकर वर्सत ( पद्मप्राझतकम्‌ और उभगराभिसारिका में ) ओर वर्षा ( धूतंबिट-संवाद में ) के वर्णन से होता है! पादताडितक्रम्‌ में ऐसी किसी ऋतु का वर्णन नहीं आता । पद्मप्राभ्तकम्‌ का स्थान उजयिनी, धूर्तबिट और उभयामिसारिका का पाटलिपृत्र तथा पादताडितकम्‌ का स्थान सावभौम नगर' है जिसकी पहचान उजयिनी से की जा सकती है । श्री एम० रायक्ृष्ण कवि और श्री एस० के० रामनाथ शात्त्री को चत्तुर्भाणी की एक प्रति त्रिचूर के श्रीनारायण नांबूदरीपाद के यहाँ से मिली जिसे उन्होंने बड़े परिश्रम से प्रकाशित किया। अपनी भूमिका का आरम्भ सम्पादकद्दय ने पश्चप्रागरतकम्‌ के अ्रन्त में आने वाले श्लोक से किया है जिसमें वररुचि, ईश्वरदत्त, श्यामिलक और शुद्धक के भाणों की प्रशंसा करते हुए. कहा गया है कि उनके सामने कालिदास की क्या हृस्ती थी | विद्वान सम्पाद्को का मत है कि उपयुक्त भाणो के लेखकों का काछ और स्थान भिन्न-भिन्न था और इनका एक साथ गूँथा जाना भावुक कल्पना मात्र है। पर जैसा हम आगे चलकर देखेंगे उपयुक्त 'छोक में बहुत तथ्य है। भाणों की भाषा, भाव तथा अनेक ऐसे भीतरी प्रमाण हैं जिनके आधार पर चतुर्भाणी के भाणीं का समय एक माने जाने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए | $. चतुर्माणी प्र० ५ श्री एस. रायकृप्ण कवि और श्री एस. के. रामनाथ शाखी द्वारा सम्पादितत, शिवपुरी १६२९1 २, चररचिरीश्वरदत्तः श्यामकः शूदकश्चत्वारः । , एते माणान्‌ वभणुः का याक्तिः काकिदसस्य 1 ३. वही प्ू० ३ |




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